Delhi News : भक्तों ने उसे कहा भगवान, धर्म के ठेकेदारों ने माना दुश्मन

वारदात में आज कहानी एक ऐसे संत की जिसे भक्तों ने भगवान कहा तो धर्म के ठेकेदारों ने उसे माना अपना दुश्मन. उसके करोड़ो भक्त बने लेकिन संसार की सबसे ताकतवर हुकमतें उसकी दुश्मन बन गईं. वो एक गांव में पैदा हुआ

 लेकिन उसने हिला दिया दुनिया का सबसे ताकतवर देश. लेकिन हकीकत में ये दार्शनिक योद्धा जिस भी राह पर निकला अपने पीछे छोड़ गया शांति और प्रेम का संदेश. आज उसे लोग ओशो के नाम से जानते हैं. कुछ लोग उसे आचार्य रजनीश कहते हैं. और कुछ लोगों के लिए वो भगवान है. लेकिन जब वो पैदा हुआ तो वो सिर्फ चंद्रमोहन था. ओशो के जीवन के गहरे रहस्यों को जानने से पहले देखते हैं कि कैसे चंद्रमोहन नाम का बालक एक दिन बन गया आचार्य रजनीश.

उसकी एक एक बात से मचता था तूफान और एक दिन 21 देशों की हूकुमत बन गई उसकी दुश्मन. वो पैदा हुआ तो चंद्रमोहन था. बड़ा हुआ तो रजनीश. भक्तों ने उसे कहा भगवान, लेकिन उसने नाम चुना ओशो. वो एक गांव की झोपड़ी में पैदा हुआ लेकिन उसकी हुंकार से हिल गया व्हाइट हाउस. दुनिया के सबसे ताकतवर देश ने रची उसकी मौत की साज़िश. उसे दी गई जेल की सलाखें. 21 देशों ने उसे अपने यहां कदम रखने मना कर दिया. लेकिन फिर भी वो देता रहा दुनिया को शांति, सुख और प्रेम का संदेश. वो जब तक जिया उसका हर पल एक संदेश था और जब वो इस दुनिया से गया तो भी संदेश देकर. उसकी मौत पर उसके भक्तों ने दुख नहीं उत्सव मनाया.

ध्यान से सुनिएगा. क्योंकि ये कहानी है ओशो की. ओशो के भक्त ओशो के बारे में कहते हैं कि वो ना कभी पैदा हुए, ना वो कभी मरे. वो तो बस इस धरती पर 11 दिसंबर 1931 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक रहने के लिए आए थे. लेकिन जो इस धरती पर रहा वो कभी पैदा भी हुआ होगा.

ऐसी ही एक तारीख थी 11 दिसंबर 1931. जगह थी मध्य प्रदेश के रायसेन ज़िले का गांव कुचवाड़ा और एक कच्चे मकान में हुआ था चंद्र मोहन जैन यानि ओशो का जन्म. ओशो के माता-पिता रहने वाले तो जबलपुर के थे लेकिन उनका बचपन अपने नाना नानी के पास गुज़रा. ओशो में कुछ खास था तभी तो उन्होने 19 साल की उम्र में अपनी बीए की पढ़ाई के लिए विषय चुना दर्शन शास्त्र. पहले वो जबलपुर के एक कॉलेज में पढ़े और फिर मास्टर डिग्री करने सागर यूनिवर्सिटी पहुंच गए.

पढ़ाई पूरी की तो फैसला किया कि अब दूसरे को शिक्षा देंगे. और पेशा चुना प्रोफेसरी का. रायुपर के संस्कृत कॉलेज में प्रोफेसर बन गए, लेकिन ओशो के तेवर के कॉलेज का मैनेजमेंट घबरा गया. उनके सुलगते विचार छात्रों को भटका रहे ये आरोप लगा कर ओशो को कॉलेज से निकाल दिया गया. अगला पड़ाव बनी जबलपुर यूनिवर्सिटी. बेबाक प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन, अध्यात्म की ओर कदम बढा चुके थे. वो पूरे देश में घूम कर प्रवचन देने लगे.

1960 से लेकर 1966 तक उन्होने पूरा भारत घूमा. उनके लाखो प्रशंसक बने लेकिन कई दुश्मन भी तैयार हो गए. वजह थी कि वो कभी कम्युनिस्टों को भला बुरा कहते तो कभी गांधी की विचारधारा पर सवाल उठाते. कुछ लोगों को उनके विवाद उनकी काबिलियत ज्यादा चुभने लगे. नतीजा 1966 तक आते आते जबलपुर यूनिवर्सिटी ने उनसे नाता तोड़ने का फैसला ले लिया. लेकिन उससे बड़ा फैसला तो खुद प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन ले चुके थे. वो फैसला था प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन से आचार्य रजनीश बनने का. एक ऐसा फैसला जो अब आने वाले समय में अध्यात्म का एक नया रास्ता खोलने वाला था. लेकिन इसके साथ ही शुरु होने वाला था वो सब जो पूरे देश पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाला था.

दुनिया के 21 ताकतवर देशों की हुकूमतें ओशो के नाम से कांप रही थीं. दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका की सरकार भी ओशो से खौफ खा रही थी. लेकिन ओशो के भक्तों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ती जा रही थी. रही बात ओशो के नए ठिकाने की तो उनका अपना मुल्क हिंदुस्तान बाहें पसार कर उनका इंतज़ार कर रहा था.

जब पश्चिम कांप गया तो पूरब में अपने ही देश अपने ही लोगों के बीच ओशो को एक बार फिर आना पड़ा. जनवरी 1987 को ओशो वापस अपने वतन हिंदुस्तान लौट आए. एक बार फिर पूना के ओशो कम्यून ओशो और उनके भक्तों से गुलज़ार हो गया. ओशो एक बार फिर अपने भक्तों के लिए ज्ञान की गंगा बहा रहे थे.

ओशो उस दौर में मेडिटेशन में नए-नए प्रयोग कर दुनिया को एक नई राह दिखा रहे थे. ऐसा लगा जैसे सब कुछ ठीक चल रहा है. लेकिन अमेरिका में ओशो के साथ जो षड़यंत्र हुआ था उसके निशान पूना में सामने आने लगे. नवंबर 1987 में ओशो की तबियत नासाज़ रहने लगी. तब ओशो ने खुलासा किया कि अमेरिका में जेल में रहने के दौरान उनके शरीर में धीमा ज़हर पहुंचा दिया गया है. ओशो के भक्तों का आज तक मानना है कि जेल में अमेरिकी सरकार ने ओशो को थिलियम नाम का धीमा ज़हर दिया था, जिसके नतीजे में वो बुरी तरह बीमार पड़ गए.

बीमार हो चुके शरीर के साथ शुरूआत में तो ओशो दिन में एक बार प्रवचन देने के लिए भक्तों के सामने आते थे. लेकिन इसके बाद ओशो की सेहत लगातार बिगड़ती गई और अब वो सिर्फ शाम के वक़्त अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए अपने कमरे से बाहर निकलते थे.

इस धरती पर ओशो का वक्त पूरा हो गया था. 19 जनवरी शाम 5 बजे ओशो ने इस धरती को आहिस्ता आहिस्ता अलविदा कह दिया. शरीर को त्यागने से पहले ओशो ने अपने भक्तों से, एक गुज़ारिश की. मेरे जाने का गम न मनाना. बल्कि मेरे शरीर के साथ उत्सव मनाना. हुआ भी यही. पुणे के बुद्धा हॉल में ओशो के शरीर को रखा गया, जमकर मृत्यु का उत्सव मना और दिल खोलकर मना. नाचते गाते सन्यासी अपने भगवान के को बर्निंग घाट तक ले गए. जहां सारी रात ये उत्सव जारी रहा. ओशो की समाधि पर लिखा गया. वो ना कभी पैदा हुआ, ना वो कभी मरा. वो तो बस इस धरती पर 11 दिसंबर 1931 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक रहने के लिए आया था.

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