जीवित रहते ही करें अपने वृद्ध परिजनों – असहायों की सेवा, बाद में श्राद्ध का कम ही मिलेगा पुण्य लाभ- दिलीप गुप्ता

बरेली। मृतक व्यक्तियों के लिए उनके परिजन श्राद्ध करते हैं। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं। पर आजकल समाज का हाल यह है कि जीवित रहते अपने वृद्ध परिजनों – असहायों की सेवा कम ही करते हैं। कहते हैं उन्हें श्राद्ध का बाद में कम ही पुण्य लाभ मिलता है। अगर सोचा जाए तो क्या यह सब कहीं मात्र लकीर पीटना तो नहीं है। न तो मृत्यु भोज देने से मृत आत्मा के पेट में कुछ जाता है और न ही उनके नाम पर श्राद्ध करने पर उनका कुछ भला हो पाता है। तो क्यों न जब हमारे घर में बुजुर्ग जन जीवित हैं। उनका मान-आदर करें। यदि वह वृद्ध और अशक्त हैं तो उनकी जी जान से सेवा करें। बाहर जाकर वृद्धाश्रमों में जाकर चंद मिनट उनकी सेवा करके मात्र अपना फोटो खिंचवाने की और बाहवाही लूटने की क्या वास्तव में जरूरत है। अगर ऐसी ढोंगबाजी बंद हो जाये तो अच्छी बात है। हमें सोच लेना चाहिए वृद्ध घर में एक छायादार वृक्ष की भांति है वह फल नहीं दे तो क्या छाया तो देता ही हैं।

सही बात तो यह है एक सभ्य समाज में वृद्धआश्रम होना ही नहीं चाहिए। पर इसका उलटा हो रहा है। पहले लोग वृद्धाश्रम जानते ही नहीं थे। पहले परिवार में वृद्धजन की देखभाल उनके घर में होती थी। घर में वृद्ध लोगों की सेवा के भाव आप से ही दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाते थे। संयुक्त बड़े परिवार होने के कारण घर में कुछ मन-मुटाव चलते रहते थे पर वह साथ-साथ रहते हुए आप ही धुलते रहते थे। मेरे ख्याल से परिवार निर्माण की ऐसी परम्परा केवल भारत में थी। अब कहां गये वो दिन। मेरे ख्याल से लोग वही है। हां उन्होंने अपने आप ही एकल परिवार का ताना-बाना बुन लिया है। उनकी जब नहीं निभी तो अपना चौका चूल्हा अलग कर लिया। साथ रहने में कुछ बातों में धीरज और गंभीरता होना चाहिए अब वह खत्म हो गई। जब लोगों का स्वयं रोजगार से मन भटका तो भटक ही गया। लोगों का जुड़ाव नौकरी के प्रति दिन प्रति दिन और गहरा होता जा रहा है। अब तो लोग पढ़ते भी है तो नौकरी पाने के लिए। इस मामले में हमारे बड़े भाई बताते थे- रेलवे में उस समय नौकरी 13 से लेकर 24 तक का समय बताओ और नौकरी पाओ। तब बहुुत से लोग नौकरी ऐसे बदल लेते थे जैसे मूड चेंज करना। खैर ये तो थी पुराने समय की बातें। आज व्यक्ति नौकरी पाने के लिए लालायित रहता है। इसी का परिणाम है कि आज परिवार एकल परिवार में बदल गया। यहां नौकरी नहीं मिली तो परदेस जाकर बस गये और फिर वही के होकर रह गये। इसका दुष्परिणाम आज हम देख रहे हैं। वृद्ध घर में अकेले हैं। उनके पास टाइम पास करने को तो मोबाइल है टीवी है। बस बड़ी कमी यही  की बेटे बहू परदेस में हैं। उनसे कोई सुख नहीं पा सकते। प्रश्न यही है क्या इन्होंने इसी दिन को देखने के लिए औलाद को पैदा किया था। अब जब औलाद ये दिन दिखा रही है तो अब झेलो। नाती-पोतों को वृद्धजनों की छत्र-छाया नहीं मिलती है। वह क्या जानें दादा-दादी भी होते है। कहीं कहीं तो इनके बच्चे नौकरों के सहारे पल रहे हैं। ऐसे में बच्चों को जो संस्कार मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहे हैं। कहा जाता है ‘परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है। क्या हम बच्चों को ऐसा परिवार दे पा रहे हैं ? । जिसमें परिवार नाम की कोई चीज नहीं है। असल में परिवार उसे कहते हैं जहां भावनात्मक रूप से लोग जुड़े होते हैं। अब कुछ बातें अपनी भी। मेरे एक भाई ने पिता की काफी लंबे समय तक सेवा की। जिस काम से और भाई जन वितृष्णा करते थे। वह भाई उस काम को तत्परता से करते थे। मुझे इसका अच्छी तरह होश है। भगवान चाहें उनके इस काम को देख रहा हो पर हम सारे भाई उनकी इस महानता को याद करते हैं। भाइयों के लिए भी उन्होंने बहुत कुछ किया। तभी तो जब भी कोई मुश्किल आती है तो यही कहा जाता है बड़े भाई है न। और भाइयों के परदेस में रहने के कारण माताजी की सेवा मेरे हिस्से में आई। जीवन संध्या में वह काफी समय बिस्तर पर रही। उनके काम मेरे ही हिस्से में आये। मेरे ख्याल से एक व्यक्ति जब तक शरीर से सक्रिय रहता है अपनी अकड़ दिखाता ही रहता है। और आखिरी समय कैसा शरीर से अशक्त हो जाता है। कैसे उसके परिजन उसे सनकी, खाने का चटोरापन कहकर उसके चार काम से किनारा कर लेते हैं। उनकी और दुर्गत हो जाती है। जब वह कुछ पेंशन आदि का सहयोग  नहीं दे पाते। फिर भी हमें सोच लेना चाहिए वृद्ध घर में एक छायादार वृक्ष की भांति है वह फल नहीं दे तो क्या छाया तो देता ही हैं। बहुत दुख होता है ऐसे लोगों पर जो अपने वृद्ध जनों को लावारिस हालत में छोड़ देते हैं । असहाय वृद्धजनों की सेवा का पुण्य हम जीते जी अगर बटौर ले तो फिर बाद में उनका श्राद्ध और पुण्य आदि का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता।

 

बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !

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