7 सितम्बर जयंती पर विशेष-“राष्ट्र भाषा हिन्दी के उन्नायक और प्रखर देश भक्त राज नारायण बसु”

बंगाल की अनेक विभूतियों ने भारत देश और हिन्दू धर्म को सार्थक दिशा दी है। 7 सितम्बर, 1826 को बोड़ाल ग्राम में जन्मे राष्ट्रऋषि राजनारायण बसु भी उनमें से एक थे। इनके पूर्वज बल्लाल सेन के युग में गोविन्दपुर में बसे थे। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने इसे फोर्ट विलियम में मिला लिया। अतः इनका परिवार पहले ग्राम सिमला और फिर बोड़ाल आ गया।

सात वर्ष की अवस्था में बसु ने शिक्षारम्भ कर अंग्रेजी, लेटिन, संस्कृत और बंगला का गहन अध्ययन किया। 1843 में ब्राह्मधर्म के अनुयायी बनकर ये महर्षि देवेन्द्रनाथ के संपर्क में आये। इनके आग्रह पर उन्होंने चार विद्वानों को काशी भेजकर वेदाध्यन की परम्परा को पुनर्जीवित किया था। 1847 में इन्होंने केन, कठ, मुण्डक तथा श्वेताश्वर उपनिषद का अंग्रेजी में अनुवाद किया।

शिक्षा पूर्णकर 1851 में इन्होंने अध्यापन कार्य को अपनाया। राजकीय विद्यालय में ये पहले भारतीय प्राचार्य बने। उन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के उत्साह और उसकी विफलता को निकट से देखा। मेदिनीपुर में नियुक्ति के समय इन्हें प्रशासनिक सेवा में जाने का अवसर मिला; पर इन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

उस समय बंगाल के बुद्धिजीवियों में ब्राह्म समाज तेजी से फैल रहा था। यह हिन्दू धर्म का ही एक सुधारवादी रूप था; पर कुछ लोग इसे अलग मानते थे। हिन्दुओं को बांटने के इच्छुक अंग्रेज भी इन अलगाववादियों के पीछे थेे; पर श्री बसु ने अपने तर्कपूर्ण भाषण और लेखन द्वारा इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री स्वर्णलता का विवाह डा. कृष्णधन घोष से ब्राह्म पद्धति से ही किया। श्री अरविन्द इसी दम्पति के पुत्र थे।

देश, धर्म और राष्ट्रभाषा के उन्नायक श्री बसु ने अनेक संस्थाएं स्थापित कीं। 1857 के स्वाधीनता संग्राम की विफलता के बाद उन्होंने ‘महचूणोमुहाफ’ नामक गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाया। नवयुवकों में चरित्र निर्माण हेतु इन्होंने ‘राष्ट्रीय गौरवेच्छा सम्पादिनी सभा’ की स्थापना की। इनकी प्रेरणा से ही ‘हिन्दू मेला’ प्रारम्भ हुआ। बंगाल में देवनागरी लिपि, हिन्दी और संस्कृत शिक्षण तथा गोरक्षा के लिए भी इन्होंने अनेक प्रयास किये। बंकिमचंद्र चटर्जी ने वन्दे मातरम् गीत 1875 में लिखा था। श्री बसु ने जब उसका अंग्रेजी अनुवाद किया, तो उसकी गूंज ब्रिटिश संसद तक हुई।

श्री बसु ने मुसलमान तथा ईसाइयों को वापस लाने के लिए ‘महाहिन्दू समिति’ बनाई। इसके कार्यक्रम ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ तथा ‘वन्दे मातरम्’ के गान से प्रारम्भ होते थे। यद्यपि शासन के कोप से बचने के लिए ‘गॉड सेव दि क्वीन’ भी बोला जाता था। इसके सदस्य एक जनवरी के स्थान पर प्रथम बैसाख को नववर्ष मनाते थे। वे ‘गुड नाइट’ के बदले ‘सु रजनी’ कहते थे तथा विदेशी शब्दों को मिलाये बिना शुद्ध भाषा बोलते थे। एक विदेशी शब्द के व्यवहार पर एक पैसे का अर्थदंड देना होता था। युवकों में शराब की बढ़ती लत को देखकर इन्होंने ‘सुरापान निवारिणी सभा’ भी बनाई।

‘हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता’ नामक तर्कपूर्ण भाषण में उन्होंने इसे वैज्ञानिक और युगानुकूल सिद्ध किया। मैक्समूलर तथा जेम्स रटलेज जैसे विदेशी विद्वानों ने इसे कई बार उद्धृत किया है। इस विद्वत्ता के कारण उन्हें ‘हिन्दू कुल चूड़ामणि’ तथा ‘राष्ट्र पितामह’ जैसे विशेषणों से विभूषित किया गया। तत्कालीन सभी प्रमुख विचारकों से इनका सम्पर्क था। ऋषि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी अखंडानद, मालवीय जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, माइकेल मधुसूदन दत्त तथा कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम से भी इनकी भेंट होती रहती थी।

1868 में सेवानिवृत्त होकर ये 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक देवधर वैद्यनाथ धाम में बस गये। 18 दिसम्बर, 1899 को वहीं इनका देहांत हुआ।


सुरेश बाबू मिश्र सेवानिवृत प्रधानाचार्य बरेली ।

 

 

बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !

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