18 जून बलिदान दिवस पर -स्वतन्त्रता समर की अमर वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान जिन वीरांगनाओं ने अपनी वीरता से अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए थे, उनमें रानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरि है। वह स्वतन्त्रता समर की अमर वीरांगना थीं। अंग्रेजी सेना भी उनकी वीरता एवं पराक्रम का लोहा मानती थी। अपने पराक्रम एवं शौर्य से उन्होंने पूरे देश में आजादी की ज्वाला भड़काने का काम किया। युद्ध क्षेत्र में अपने अमर बलिदान द्वारा वे देश की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त कर गईं।
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथबाई और पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। मोरोपन्त पेशवा वाजीराव द्वितीया के दरबारी थे। जब लक्ष्मीबाई छोटी ही थी तभी उनकी माँ का निधन हो गया।
घर पर मनु की देखभाल करने के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता उन्हें अपने साथ पेशवा वाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल स्वभाव की सुन्दर मनु को सब लोग प्यार से छबीली कहकर पुकारने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों साथ-साथ शस्त्र चलाने की भी शिक्षा ली। वे तलवार चलाने में बहुत निपुण हो गईं।
सन् 1842 में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हो गया। विवाह के समय लक्ष्मीबाई की आयु मात्र 14 वर्ष थी। विवाह के बाद वे झांसी की रानी बन गईं। सन् 1853 में गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। मन्त्रियों ने उन्हें दत्तक पुत्र गोद लेने की सलाह दी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। राजा के दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। लक्ष्मीबाई पर झांसी का राज्य और दत्तक पुत्र दामोदर राव दोनों को संभालने की जिम्मेदारी आ गई।
अंग्रेज शासक लार्ड डलहौजी ने अपनी राज्य हड़प नीति के तहत दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी राज्य का वारिस मानने से इन्कार कर दिया और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। झांसी के किले तथा खजाने पर अंग्रेज शासकों ने कब्जा कर लिया। इसके परिणाम स्वरुप रानी लक्ष्मीबाई को किला छोड़कर रानी महल में जाना पड़ा, मगर लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने हर हाल में झांसी की रक्षा करने का निश्चय किया। उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि मैं अपने जीते जी अपनी झांसी पर अंग्रेजों को कब्जा नहीं करने दूंगी।
यही से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव पड़ना शुरू हुई। अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असन्तुष्ट हो गए और उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने क्रान्ति की ज्वाला को और भड़काया तथा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाई।
नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर, राजा मर्दन सिंह और तात्या टोपे सभी ने लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में साथ देने का वचन दिया।

23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरम्भ हुआ। अंग्रेज कमांडर ह्यूरोज ने एक विशाल सेना के साथ कैमरान पहाड़ी के मैदान में मोर्चा संभाल रखा था। रानी लक्ष्मीबाई और वानपुर के राजा मर्दन सिंह ने अंग्रेज सेना का डटकर मुकाबला किया। रानी लक्ष्मीबाई के पास अंगे्रजों के मुकाबले बहुत छोटी सेना थी मगर उनका हौंसला और शौर्य सातवें आसमान पर था। सात दिन तक दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के आदेश पर उनकी सेना के कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि अंग्रेज सेना के छक्के छूट गए। रानी लक्ष्मीबाई ने युद्ध में असाधारण वीरता का परिचय दिया। घोड़े पर सवार रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर कसकर बांध रखा था। वे दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं, उनके दाँतों में घोड़े की लगाम दबी हुई थी और वे दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं। वे शत्रु सेना का आगे बढ़कर डटकर मुकाबला कर रही थीं। उनकी इस वीरता और पराक्रम को देखकर अंग्रेज सैनिक भी दंग रह गये। अंग्रेजों की विशाल सेना के सामने रानी लक्ष्मीबाई की सेना कहाँ तक टिकती। अन्त में सात दिनों के घमासान युद्ध के बाद अंग्रेजी सेना का झांसी पर कब्जा हो गया।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अपने कुछ सरदारों के साथ वहाँ से निकलने में सफल हो गईं और वे काल्पी जा पहुंची। काल्पी पहुंचकर रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, राजा मर्दन सिंह और नाना साहब ने मिलकर मंत्रण की और ग्वालियर के किले को अंग्रेजों से मुक्त करने की योजना बनाई। सभी की सेनाओं ने साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।
अंग्रेज शासकों को जब यह सूचना मिली तो उन्होंने कमांडर ह्यूरोज के नेतृत्व में एक विशाल सेना ग्वालियर के किले पर कब्जा करने के लिए भेजी। काल्पी के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच एक बार फिर घमासान युद्ध हुआ। लक्ष्मीबाई ने बड़ी वीरता के साथ अपनी सेना का नेतृत्व किया। उनकी सेना के अधिकांश सैनिक मारे गये, युद्ध में वे चारों तरफ से घिर गईं। एक अंग्रेज सैनिक ने पीछे से उनके सिर पर पीछे से तलवार से वार किया जिससे वे बुरी तरह से घायल हो गईं। मगर वे अपनी अन्तिम सांस तक युद्ध के मैदान में डटी रहीं। और 18 जून 1858 को वह वीरगति को प्राप्त हुईं।
उनका यह अमर बलिदान देश की स्वतंत्रता के इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों से लिखा जायेगा। हिन्दी की विख्यात कवियत्री सुभद्रा कुमारी चोहान ने उनकी वीरता का बखान करती हुई कविता लिखी-“खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।“ यह कविता आज भी हर एक की जुवां पर है। झांसी में लगी घोड़े पर सवार हाथ में तलवार लिए उनकी प्रतिमा उनके अमिट बलिदान की याद दिलाती है।

सुरेश बाबू मिश्रा
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, बरेली
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !