गांधी स्मारक तोड़े जाने का क्या है संकेत

नर्मदा किनारे राजघाट, जिला बड़वानी में दशकों से स्थापित महात्मा गाँधी की समाधि कस्तूरबा गाँधी व महादेवभाई देसाईजी के अस्थि कलशों सहित उखाड़ दी गई। इस समाधि को भी अँधेरे और बारिश के दौरान जेसीबी मशीन से उखाडक़र ले जाते हुए इर्दगिर्द के गाँवों के प्रतिनिधियों तथा राजघाट के साधू संतों ने आकर रोका और उखड़ी हुई कलशभरी शिला फिर से समाधि स्थल पर रखवा दी।

इस कुकृत्य को बैसे समय अंजाम दिया गया जब नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा शासन की हर प्रकार से बढ़ती हिंसा और अत्याचार के खिलाफ अनिश्चितकालीन उपवास का सामूहिक कदम उठाया जाना था, तब यह घटना प्रतीकात्मक नहीं, देश की हालात को उजागर करती है। न जनतंत्र, न देश के आजादी की कोई परवाह शासकों को है। गाँधीजी के नाम पर स्वच्छता अभियान और चरखा चलाने वाले प्रधानमंत्री इस पर क्या कहना चाहेंगे। शासनकर्ता न केवल अस्थियों की किन्तु महात्मा गांधी के आज तक जीते जागते सन्देश की अवमानना कर रही है।नर्मदा राजघाट को तोडऩे की कार्रवाई को नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख मेधा पाटकर ने महात्मा गांधी की दूसरी बार हत्या करार दिया है। नर्मदा के सवाल पर मेधा पाटेकर और उनके 11 साथी बेमियादी भूख हड़ताल पर चले गए हैं।

कई दशकों से गांधी की विचारधारा मानने वालों के लिए राजघाट श्रद्धा का केन्द्र रहा है। पश्चिमी मध्यप्रदेश में स्थित बड़वानी जिला गुजरात और महाराष्ट्र से सटा हुआ है। नर्मदा घाटी में थोपी जा रही हिंसा और राजा खुद प्रजा के सामने उठा रहे युद्ध को ललकार रही है । गरीब से गरीब मजदूर, मछुआरे, नावडी वाले केवट, व्यापारी और आदिवासियों सहित हर समाज के किसान मिलकर विकास के नाम पर हिंसा को नकारकर, धिक्कारकर रोकना चाहते हैं। वैसे मे सरदार सरोवर के विस्थापितों के हजारों परिवारों को तत्काल हटाने की शासन की तैयारी चलते, ‘अहिंसा परमो धर्म:’ का ही सन्देश लेकर नर्मदा घाटी के ही नहीं, सभी जनांदोलनों के परिवर्तनकारी गोलबंद हो रहे हैं। चिन्मय मिश्र कहते हैं कि    देशभर जाति, धर्म या धन पूँजी के आधार पर बढती रही हिंसा की जगह कश्मीर घाटी से नर्मदा घाटी तक शांति और जन-जन के अधिकार को स्थापित करने की जरुरत दिल-दिमाग पर छायी हुई है। विकास के नाम पर संविधान की अवमानना के साथ संसाधनों की हो रही लूट, न केवल बड़े बांधों-जलाशयों के जल बंटवारे के रूप में, बल्कि कॉर्पोरेट जमींदारी के तहत बढ़ रही है। शहरी गरीबों की बस्तियों पर चल रहे बुलडोजर आवास ही नहीं, रोजी रोटी और जीने के अधिकार को कुचलते हुए दिख रहे हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोगों का कहना है कि इस परिपेक्ष्य में नर्मदा की दुनिया में सबसे पुरानी घाटी हिंसक हमले के सामने चुप नहीं बैठ सकती। घाटी के लोग, आम मेहनतकश लोग हो रहा छलावा समझ चुके हैं। किसी को भी अपने आजीविका आवास एवं जीने के अधिकार को डूबने नहीं देखना है। सरदार सरोवर मात्र गुजरात के लिए राजनीतिक खिलौना बन चुका है।

2002 से और 2006 से जितनी भी मात्र में कच्छ-सौराष्ट्र व उत्तर गुजरात को पानी मिलना था, उतनी मात्रा में नहीं मिला, कोका कोला, कार फैक्ट्री के लिए आवंटित आरक्षित रखा गया। यह कैसा विकास, किसका विकास?  सरदार सरोवर से एक बूँद पानी का लाभ न होते हुए मात्र गुजरात को पानी की जरूरत मानकर, विकास की परियोजना बनाकर, मध्यप्रदेष के जीते जागते गांवों की आहुति देने में जरा भी न हिचकिचाती राज्य सरकार ने झूठे शपथपत्र भी दिए और परियोजना को विकास का सर्वोच्च प्रतीक मान देश-विदेश में घोषित किया। प्रत्यक्ष में आज की स्थिति यह है कि गुजरात ने नहरों का जाल, 35 वर्षों में न बनाते हुए मात्र गुजरात के बड़े शहर और कंपनियों को अधिकाधिक पानी दान करना तय किया, लेकिन नाम रहा सूखा ग्रस्तों का। जिनके लिए विविध मार्गों से पानी पहुंचाना था, जिन बांधों में भरना था उन बाधों में आज प्रकृति ने इतना पानी भर दिया कि सुरेन्द्र नगर राजकोट में बाँध भर के ओवर फ्फ्लो की स्थिति में आ गए। कहीं आर्मी लानी पड़ी और नर्मदा घाटी के निमाड़ के लोगों से पहले गुजरात के 5000 लोगों को स्थानांतरित करना पड़ा।  कुछ सालों में एक बार यह हकीकत बनती आई है और इसी से सवाल उठता है, क्या गुजरात अपने जलग्रहण क्षेत्र और जल का सही विकेन्द्रित नियोजन नहीं कर सकता? क्या निमाड़ के पीढिय़ों पुराने गाँवों का विनाश, खेतीहरों की बरबादी बच नहीं सकती? मध्यप्रदेश को मात्र 56 फीसदी बिजली की भी क्या जरूरत है जबकि राज्य ने बरगी सहित अपने कई शासकीय बिजली घर बंद रखे है तो क्या शासनकर्ता पुनर्वास कानूनी व न्याय पूर्ण स्वैच्छिक क रूप से पूरा होने तक रुक नहीं सकते?

विस्थापितों का दर्द समझता हूं, ऐसा जवाब देने वाले सीएम सच्चाई बरतने, शपथ पत्रों में झूठे आंकड़े देकर अदालत की अवमानना न करने, तथा विस्थापितों पर युद्ध स्तरीय हमला करने के बजाय संवाद से सुलझाव का रास्ता नहीं चाहते, यह स्पष्ट हो चुका है। विकास का यह विकृत चित्र व राजनीतिक चरित्र असहनीय है। हिंसा का आधार न्याय पालिका भी मंजूर नहीं कर सकती। और धरातल की स्थिति की जांच परख के बिना आदर्श पुनर्वास का दावा मान्य नहीं कर सकती। विकास की अंधी दौड़ में  जनता को ही नहीं, गाँव, किसानी, प्रकृति, संस्कृति को कुचलना स्वीकार नहीं।

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