चीन के नए सत्ता ढांचा के असल माने
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में माओ त्सेतुंग के अलावा जिस एक जिंदा व्यक्ति का नाम जुड़ा है, वह हैं वहां के मौजूदा राष्ट्रपति और पार्टी के महासचिव शी चिनफिंग। इसका बड़े से बड़ा और खतरनाक से खतरनाक मतलब निकाला जा सकता है। मसलन यह कि जिस तरह माओ त्सेतुंग मरते दम तक चीन में विचार और सत्ता के केंद्र बने रहे, वैसा ही कोई नमूना अब शायद शी चिनफिंग भी पेश करें लेकिन वह अभी दूर की बात है। चीन के (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नहीं) संविधान में राष्ट्रपति पद पर किसी के अधिकतम दस साल ही रहने की व्यवस्था है, जिसे खुद माओ और बाद में सुधार के मसीहा तंग श्याओफिंग ने भी नहीं तोड़ा तो शी इसे तोड़ देंगे, यह मानने का अभी कोई कारण नहीं है। असल चीज वहां चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व है, जिस पर आयु की कोई सीमा आयद नहीं है। बस, पिछले तीस वर्षों से एक परंपरा चली आ रही है कि हर पांच साल पर होने वाली पार्टी कांग्रेस में पचास के आसपास उम्र के कुछ लोग पार्टी के पॉलिट ब्यूरो में शामिल किए जाते हैं, जिनमें से कोई एक अगली कांग्रेस में इस ब्यूरो की स्थायी समिति में शामिल कर लिया जाता है और उसे ही कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय सत्ता का अगला दावेदार समझा जाता है। आश्चर्य की बात है कि इस बार यह स्थापित परंपरा भी टूट गई है। पॉलिट ब्यूरो में साठ से कम उम्र वाले कुछ लोग जरूर हैं लेकिन इसकी स्टैंडिंग कमिटी में शामिल सारे लोग साठ या साठ से ऊपर के हैं। यानी शी चिनफिंग की सत्ता का कोई सीधा वारिस इस पार्टी कांग्रेस में तय नहीं किया गया है।
कुछ चीन विशेषज्ञों की राय है कि इससे पांच साल बाद ऊहापोह की स्थिति पैदा हो सकती है। जिस राजा ने अपना कोई युवराज न घोषित कर रखा हो, उसकी प्रजा के प्राण हमेशा पत्ते पर ही रहते हैं लेकिन ‘मिडल किंगडम’ वाली आम धारणा के विपरीत चीन कोई मध्यकालीन रियासत तो है नहीं। वहां की 96 साल पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी अगर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में आकर भी इतना आत्मविश्वास नहीं जुटा पाई है कि अपने सत्ताकेंद्र का वारिस तय किए बगैर वह इत्मिनान से नहीं रह सकती तो फिर अपनी विचारधारा को आधुनिक युग के अनुरूप बनाने का उसका दावा झूठा ही समझा जाना चाहिए। अपने सात सदस्यीय शीर्ष नेतृत्व में लगभग समान योग्यता, क्षमता और वरिष्ठता वाले नेताओं को चुनकर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने शायद अपना यही आत्मविश्वास दिखाने की कोशिश की है। जहां तक मौजूदा पॉलिट ब्यूरो स्टैंडिंग कमिटी का प्रश्न है तो इसमें चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग और प्रधानमंत्री ली खछ्यांग को छोडक़र बाकी पांचो लोग पहली बार ही आए हैं। प्रशासन की दृष्टि से चीन के सामने फिलहाल जो चार-पांच सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, उनसे निपटने में इनकी पहले भी भूमिका रही है और यह तजुर्बा आगे भी इनके काम आने वाला है। सबसे बड़ी चुनौती चीन पर लदा कर्जे का बोझ कम करने की है, जो उसकी जीडीपी का तीन गुना है। इसका एक हिस्सा वहां की राज्य सरकारों पर चढ़ा हुआ है, एक हिस्सा बड़े सरकारी उद्यमों पर है और काफी हिस्सा सेंत-मेंत में बनाए गए हाईस्पीड रेलवे जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर खर्चों का है, जिन्हें जल्द से जल्द उत्पादक और उपयोगी बनाया जा सके तो ये कर्जे अपने आप सध जाएंगे।
कमोबेश ऐसी ही चुनौती अमानत में खयानत करने वालों पर नजर रखने की है। ऐंटी-करप्शन अभियान के मुखिया 69 साल के हो जाने के चलते रिटायर हो रहे हैं, उनकी जगह लेने के लिए उनसे भी एक और बंदे को ऊपर लाया गया है। एक बहुत बड़ा मामला विदेश नीति का है, जिसका काफी बड़ा इम्तहान अगले कुछ सालों में चीन को देना है और इसका कुछ संबंध भारत से भी होना है। जरूरत एक ऐसे सामूहिक नेतृत्व की है, जिसमें हर एक व्यक्ति के पास बड़ी पहलकदमी लेने लायक तजुर्बा और कद हो, साथ ही जिसमें सत्ता के नए वारिस के रूप में अपना अलग पावर स्ट्रक्चर खड़ा करने की हड़बड़ी भी न हो।
शी चिनफिंग चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को फिलहाल यह समझाने में सफल रहे हैं कि अगले 5 साल उसके सामने मुश्किल के हैं, जिसमें पास हो जाने के बाद नए सत्ता ढांचे का उभरना मुश्किल नहीं होगा। हां, इसके साथ अगर चीनी कम्युनिस्ट नेताओं की सत्ता लोलुपता के किस्से भी जोडक़र देखे जाएं तो 2022 तक यह आशंका बनी ही रहेगी कि शी चिनफिंग कहीं खुद को अगले दस-बीस वर्षों तक पार्टी और सरकार का बॉस बनाए रखने की जुगत तो नहीं भिड़ा रहे!