भारत सरकार ने कहा रोहिंग्या मुसलमान हैं गंभीर खतरा
भारत सरकार ने रोहिंग्या मसले पर उच्चतम न्यायालय में दायर अपने जवाब में कहा है कि रोहिंग्या देश की सुरक्षा के लिए एक खतरा हैं. सरकार ने आशंका जताई है कि इनका कट्टरपंथी वर्ग भारत में बौद्धों के खिलाफ हिंसा फैला सकता है. भारत सरकार ने उच्चतम न्यायालय में रोहिंग्या मुसलमानों को अवैध आप्रवासी बताते हुए उन्हें देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताया है. सरकार ने कहा है कि म्म्म्यांमार के रोहिंग्या लोगों को देश में रहने की अनुमति देने से भारतीय नागरिकों के हित प्रभावित होंगे और तनाव पैदा होगा. गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी मुकेश मित्तल ने न्यायालय को सौंपे लिखित जवाब में कहा कि न्यायालय द्वारा सरकार को देश के व्यापक हितों में निर्णय लेने की अनुमति दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि कुछ रोहिंग्या मुसलमान, आंतकवादी समूहों से जुड़े हैं जो जम्मू, दिल्ली, हैदराबाद और मेवात क्षेत्र में अधिक सक्रिय हैं. इन क्षेत्रों में इनकी पहचान भी की गई है. सरकार ने आशंका जताई है कि कट्टरपंथी रोहिंग्या भारत में बौद्धों के खिलाफ भी हिंसा फैला सकते हैं. खुफिया एजेंसियों का हवाला देते हुए सरकार ने कहा कि इनका संबंध पाकिस्तान और अन्य देशों में सक्रिय आतंकवादी संगठनों से है और ये नेशनल सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकते हैं.
न्यायालय ने इस मामले में अगली सुनवाई तक के लिए स्थगित कर दी है. सरकार के रोहिंग्या मुसलमानों को वापस भेजने से जुड़े फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की गई थी, जिसके जवाब में भारत सरकार ने न्यायालय को आज अपना जवाब सौंपा है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों मुताबिक भारत में तकरीबन 16 हजार रोहिंग्या मुसलमान रह रहे हैं लेकिन असल में इनका आंकड़ा कही ज्यादा है. भारत सरकार के मुताबिक यह आंकड़ा तकरीबन 40 हजार है. 7 हजार रोहिंग्या जम्मू क्षेत्र में बसे हुए हैं.
रोहिंग्या मुसलमान लगातार बांग्लादेश की ओर पलायन कर रहे हैं7 अब तक के आंकड़ों की माने तो तकरीबन 389,000 रोहिंग्या मुस्लिम बांग्लादेश में शरण ले चुके हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है की अब तो बांग्लादेश को ही अपने देश की सुरक्षा सताने लगी है. बांग्लादेश को इस बात का डर सता रहा हैं कि कही पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई रोहिंग्या मुस्लिमों की मदद से उनके देश में मुश्किलें बढ़ा सकती हैं. सूत्रों की मानें तो सरकार को डर है कि आईएसआई अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी का इस्तेमाल कर सकती है. इस संगठन के जरिए देश में आतंकी गतिविधियां शुरू करवा सकती है. म्म्यांमार में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर सयुंक्त राष्ट्र ने कहा है कि राखिन इलाके में रह रहे करीब 40 फीसदी लोग बांग्लादेश जा चुके हैं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने साफ कहा कि म्म्यांमार से भारत में घुस आए रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी नहीं हैं और इस सच्चाई को हमें समझना चाहिए। उन्होंने कहा कि शरणार्थी का दर्जा प्राप्त करने की एक प्रक्रिया होती है और इनमें से किसी ने भी इस प्रक्रिया को पूरा नहीं किया है। गौरतलब है कि बौद्ध बहुल देश म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा बढऩे पर बड़ी तादाद में पलायन हो रहा है। इससे भारत और बांग्लादेश प्रमुख तौर पर प्रभावित हुए हैं। भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह इन रोहिंग्या शरणार्थियों को डिपॉर्ट करेगा। इस पर कई विपक्षी दलों ने निंदा भी की है। देशभर में रोहिंग्या संकट पर एक बहस छिड़ गई है। संयुक्त राष्ट्र की ओर से भी कहा जा रहा है कि उस देश में जहां शरणार्थियों की जान को खतरा हो, डिपॉर्ट नहीं किया जा सकता है। इसे भारत के रु ख के ठीक विपरीत माना जा रहा है। राजनाथ सिंह ने कहा कि रोहिंग्याओं को डिपॉर्ट कर भारत किसी भी इंटरनेशनल कानून का उल्लंघन नहीं करेगा, क्योंकि भारत ने 1951 यूएन रिफ्यूजी कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है। उन्होंने कहा कि नॉन रिफोमेंट का सिद्धांत उन लोगों पर लागू होता है, जिन्होंने भारत में शरण ली हो। गृह मंत्री ने साफ कहा कि आज तक किसी भी रोहिंग्या मुसलमान ने शरण के लिए आवेदन नहीं किया है। आगे कहा कि लोगों को यह समझना चाहिए कि रोहिंग्या मुसलमानों का अवैध रूप से देश में रहना सुरक्षा से जुड़ा मसला है। एक दिन पहले ही बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा था कि करीब 4,20,000 रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार को वापस लेना ही होगा। उन्होंने इस संकट से निपटने के लिए म्म्यांमार पर और अधिक इंटरनेशनल दबाव बनाने की भी मांग की थी।
कौन हैं रोहिंग्या मुस्लिम..?
म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बड़ी तादाद में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं। कॉमन ईरा (सीई) के वर्ष 1400 के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुस्लिम हैं जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे। इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में प्रश्रय दिया था। वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।
तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान क्षेत्र में जाकर बस जाएं। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें। ब्रिटिश भारत से बड़ी तादाद में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है। दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया
बर्मा के शासकों और सैन्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी तादाद में महिलाओं से बलात्कार किए गए। संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है। इनके मामले में म्म्यांमार की सेना ही क्या वरन देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सूकी का भी मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं। वे भी देश की राष्ट्रपति बनना चाहती हैं, लेकिन उन्हें भी रोहिंग्या लोगों के वोटों की दरकार नहीं है, इसलिए वे इन लोगों के भविष्य को लेकर तनिक भी चिंता नहीं पालती हैं। उन्हें भी राष्ट्रपति की कुर्सी की खातिर केवल सैनिक शासकों के साथ बेतहर तालमेल बैठाने की चिंता रहती है।