आजादी का जश्न मनाईए लेकिन अभी ये अधूरी है…

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जब हम ब्रिटिशों के गुलाम थे, तो हमारे विकास के सारे मार्ग अवरुद्ध थे. लेकिन जब हमने अनगिनत कुर्बानियां देकर अपनी आज़ाादी पाई तो सवाल उठता है कि क्या हम अपने उन महान सपूतों के आदर्शों पर चले ? क्या हमने उनके द्वारा देखे गए सपनों को पूरा किया ? क्या हमने अपने देश के लोगों के लिए रोटी-कपड़ा और मकान की व्यवस्था कर पाए, क्या देश के सब बच्चों को गुणवत्तापूर्ण सरकारी शिक्षा का प्रबंध देश और राज्य की सरकारें कर पायीं, क्या देश के सभी नागरिकों को हम विश्व स्तर की सरकारी चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करा पायें हैं, क्या हम अपने देश के नौजवानों के लिए रोजगार का प्रबंध कर पाए हैं, क्या हमारी आर्थिक नीतियाँ समाजवादी और लोककल्याणकारी हैं, क्या हम सामाजिक और आर्थिक न्याय की अवधारणा को मजबूती से स्थापित कर पाए हैं, क्या हमारे देश में विधि और न्यायपालिका के समक्ष व्यावहारिक तौर पर सभी नागरिक समान हैं, क्या हम एक समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व से युक्त लोकतांत्रिक समाज बना पाए हैं, क्या हम अपने देश में धर्म निरपेक्षता का वातावरण बनाने में सफल हो पाए हैं, क्या हम भारतीय अपने जीवन से जातिगत भेदभाव और उत्पीडऩ खत्म कर पायें हैं, क्या हमने अपनी महिलाओं, युवतियों और बच्चियों के लिए भयमुक्त वातावरण और मर्यादित समाज का स्वरूप दिया है, क्या हम अपनी युवा पीढ़ी और अपने छोटे बच्चों को यह बताने और अहसास कराने में सफल हो पाए हैं कि यह आजादी हमने कितनी कुर्बानियों को देकर प्राप्त की है ?

प्रश्न बहुत सारे हैं और उनमें से कुछ के उत्तर भी सकारात्मक मिल सकते हैं. लेकिन 70 साल समय कोई छोटा समय नहीं होता है. यह एक पीढ़ी के अवसान का समय होता है. यह बात सही कि आजादी के वक्त देश को जिस हालत में अंग्रेज छोडक़र गए थे, वह हालात बहुत ही बुरे थे. लेकिन उसके बाद हमको एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर राष्ट्र निर्माण में लगन से लगना चाहिए था. हमारी देश व राज्यों की सरकारों को पूर्ण मनोयोग से जो करना चाहिए था, वह उन्होंने बहुत ही प्रतिबद्धता से नहीं किया ? देश में कई तरह के विकास व सुधार के प्रयास आरम्भ किए गए, देश पहली जवाहरलाल नेहरु सरकार जिस तरह से सभी दलों के लोगों को लेकर बनी, वह फिर बाद में आपसी खींचतान और अंतर्विरोधों में घिर गयी. इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू और उनके समस्त सहयोगी मन्त्री अपनी समझ और राजनैतिक मतभेदों के बावजूद देश के निर्माण में लगे थे. फिर भी देश के हालात काबू में नहीं आ रहे थे, देश व राज्य की सरकारें और नौकरशाही भी अपनी समार्थ्य के अनुसार राष्ट्र निर्माण के काम में लगी थी. देश में पंचवर्षीय योजनायें बनाई गयीं और हरित क्रान्ति से लेकर नीली क्रान्ति के आवाहन किए गए. देश में कृषि सिंचाई और ऊर्जा उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बाँध और नदी घाटी योजनायें बनाई और चलाई गयीं. लेकिन हमारे देश की अधिकतर जनता तो हाथ पर हाथ रखे बैठी हुयी सरकारों को ताकती रहती थी कि जैसे कोई मसीहा रूपी जिन्न आयेगा और जादू की छड़ी घुमायेगा तो सब कुछ ठीक कर देगा, सबको रोटी-कपड़ा और मकान का जुगाड़ कर देगा. लोगों को लगता है कि सब कुछ सरकारों को करना है, हमें कुछ नहीं करना है, हमको अपने आपको नहीं बदलना है, जब तक कानून और पुलिस का डंडा हमारे ऊपर पड़ता नहीं है तब तक हम सुधरते नहीं हैं, क्या हम अपने व्यवहार में लोकतांत्रिक हुए हैं, क्या हमने कामचोरी और आलस्य छोड़ दिया है. महात्मा गाँधी के जीवन का मन्त्र था कि जो बिना श्रम किए रोटी खाता है, वह चोरी का अन्न खाता है. पंडित जवाहरलाल नेहरु कहते थे कि आराम हराम है और भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन एक-एक क्षण शोषितों और वंचितों के लिए बीता, इसके अलावा उदाहरण बहुत सारे हैं. लेकिन हम भारतीय अपने उन महापुरुषों से क्या सीख पाए और जीवन जीने के लिए हमने उनसे क्या सबक लिया ?

सत्तर साल की आजादी में आज हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हुए हैं, लेकिन हमको करोड़ों लोगों के लिए दाल और तिलहन का आयात करना ही पड़ता है. चिकित्सा के मामले में देश के नेता एम्स के होते हुए विदेश का रुख करते हैं और एक तत्कालीन प्रधानमंत्री अपने घुटने बदलने के लिए विदेशी डाक्टर पर निर्भर थे और देश की शीर्ष हस्तियाँ अपनी अन्य गोपनीय व्याधियों का उपचार विदेश में करवाती हैं. इन्हीं लोगों के बच्चे विदेश में पढऩे जाते हैं. इसके अलावा इन लोगों को पर्यटन और भ्रमण के मामले भारत का कोई शहर पसंद नहीं आता, आखिर क्यों नहीं बनाये विश्वस्तरीय अस्पताल, शिक्षा केंद्र, पर्यटन स्थल और अन्य सब कुछ. देश की सेनाओं के सारे उपकरण हम विदेशों से खरीद रहे हैं, यहाँ तक कि हमारे पास अपने सैनिकों के लिये बुलेट प्रूफ जैकेट भी विदेश से मंगवानी पड़ रही है. उद्योग धंधों के मामले में हमारे अधिकतर व्यापारी सभी तरह की टैक्स चोरी करते हैं, केवल टाटा को छोड़कर हमारे पास कोई भी विश्वस्तरीय औद्योगिक ब्राण्ड नहीं है. जिस समाजवादी और लोककल्याणकारी राज्य का स्वप्न, हमारी आज़ादी के सिपाहियों ने देखा था, आज उसके विपरीत सारी आर्थिक नीतियों का बंटाधार हो रहा है. आज  सब कुछ निजी व्यापारियों और दलालों के हाथों में बेचा जा रहा है, देश की कोयला व लौह अयस्क की खदानों को, देश के पानी को, प्राकृतिक गैस के भण्डारों को, कृषि कार्यों वाली बहुमूल्य उपजाऊ जमीन कौड़ी के भाव में रक्त पिपासु विल्डर्स रूपी माफियाओं और कंस्ट्रक्शन कम्पनियों को बेची जा रही है.

आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश की विधि और न्याय व्यवस्था की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है. एक ही केस में सरकार बदलने पर वही सरकारी जाँच एजेंसियां अपनी ही जाँच रिपोर्ट बदल देती हैं, फिर सवाल है मालेगांव विस्फोट में लोगों को किसने मारा, क्या वे अपनी मौत ही मर गए ? इरसत जहाँ कौन थी, यह सच आज तक हमारे समाने नहीं आया है. देश के एक प्रसिद्ध लोकप्रिय अभिनेता ने सडक़ पर बम्बई में लोगों को कुचल डाला, लेकिन वह दौलत के दम पर बच गया और उसका चश्मदीद गवाह, जो बम्बई पुलिस का कांस्टेबल था, उसको नौकरी से निकलवाया, फिर वह बम्बई की सडक़ों पर भीख मांगते हुए लावारिश व विक्षिप्त होकर मर गया. राजस्थान में चिंकारा को किसने मारा, यह पता नहीं चला और वहाँ की अदालत ने मुख्य गवाह से गवाही लिए बिना ही बम्बई के फिल्म वालों को निर्दोष बरी कर दिया. अपने देश में कई सौ केस तो ऐसे हैं कि जिसमें लोगों को पुलिस ने अपनी गुंडागर्दी में या किसी के कहने पर सबक सिखाने के लिए निर्दोष आदमी को उठाकर जेल भेज दिया, फिर उस आदमी को उसके घर वाले भूल गए, पुलिस भूल गयी, अदालत भूल गयी और जिस जेल में रह रहा है वह जेल भी भूल गयी और उन असहाय, निरक्षर व गरीब लोगों की पूरी जिन्दगी न्याय के इंतजार में जेल में ही कट गयी. वर्ष 2002 में गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकवादी हमले के मामले में मुफ्ती अब्दुल कयूम को 11 साल तक जेल में बंद रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया. अब्दुल कयूम ने एक ऐसे अपराध के लिए 11 साल जेल में बिता दिये, जो उन्होंने किया ही नहीं था. ऐसा ही एक अन्य मामला है जिसमें कि फार्मेसी के एक छात्र निसारउद्दीन अहमद को साल 1994 में बाबरी मस्जिद ध्वंस की पहली बरसी पर हुए धमाके के आरोप में पुलिस ने कर्नाटक के गुलबर्गा से गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. निसारउद्दीन अहमद 23 साल तक जेल में रहा, लेकिन पुलिस उसके खिलाफ एक भी सबूत पेश नहीं कर पाई और सुप्रीम कोर्ट ने उसको बरी कर दिया. यह आज की पुलिस और हमारी अदालतों का सच है, जो हमारी गाढ़ी-कमाई के पैसे से पलती और चलती हैं. आज महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य शोषित समाज के लोगों पर अत्याचार बढ़े हैं. किसी भी अपराधी को न्याय और अदालतों कोई खौफ़ है ही नहीं, सब वेलगाम और उन्मुक्त हैं.

इसके अलावा हमारे राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में भ्रष्टाचार बढ़ा है. हमारे आज के नेताओं की समझ और उनका कद पहले के नेताओं के समाने बौना नजर आता है. देश की नौकरशाही और बाबूगिरी तो अक्षम और निक्कमी होकर रह गयी है. आजादी के बाद तो देश के शैक्षणिक संस्थान व विश्वविद्यालय तो जातिगत उत्पीडऩ के नए प्रतीक बनकर उभरे हैं, जो जितना बड़ा प्रगतिशील और विद्वान कहलाता है, वह पर्दे के पीछे  उतना ही बड़ा कट्टर जातिवादी और मनुवादी व्यवस्था का पोषक नजर आता है. आज देश के विश्वविद्यालयों में कब्ज़ाा जमाए बैठे जातिवादी प्रोफेसरों तथा देश की जनता की कमाई पर पलने वाले परजीवी रूपी तथाकथित विद्वानों व बुद्धिजीवियों में और देश के सुदूर गाँव के एक अनपढ़ कट्टर ब्राहमणवादी मनुवादी में कोई अंतर नजर नहीं है. बल्कि अनुभव तो यह कहता है कि उस गाँव के गँवार को समझाया जा सकता है और वह कुछ हद तक अपनी निर्ममता को कम कर सकता है. लेकिन देश के शैक्षणिक संस्थानों में कब्ज़ाा जमाए इन तथाकथित बुद्धिजीवियों और शिक्षकों से न्याय या दयालुता की उम्मीद करना बेमानी है, यह लोग जितने कट्टर और जातिवादी हो सकते हैं, वह एक आम-आदमी की कल्पना से परे है. इनके जुल्मों के आगे तो महाभारत का द्रोणाचार्य भी लज्जित महसूस करेगा. यह दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए एक नयी तरह की कब्रगाह बन गए हैं. तब भी दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं का संघर्ष जारी है और उनकी आवाज आज यह लोग दबा नहीं सकते हैं. देश में कई तरह की निराशा का वातावरण है, जैसे कि रोजगार के साधन नहीं हैं, खेतीबाड़ी में कुछ बच नहीं रहा है, उलटे किसान और आत्महत्या करने को मजबूर हैं. देश के सार्वजनिक बैंकों का घाटा अरबों में पहुँच गया है, उद्योगपतियों को अरबों का ऋ ण दे दिया गया है, लेकिन किसान को मरता छोड़ दिया जा रहा है. देश के कई हिस्सों का वातावरण अशांत है, वहाँ की समस्याओं का मानवीय हल निकालने के बजाय दमन की नीतियाँ अपनाई जा रहीं हैं. विदेशों से हमारे राजनैतिक और कूटनीतिक संबंध अब पहले की तरह स्थाई नहीं रह गए हैं, सरकार पूंजीवादी देशों की नीतियों का समर्थन कर रही है और उन्हीं शक्तियों को अपना अगुआ भी मानकर चल रही है. इन सबके बावजूद वृहत भारतीय उपमहाद्वीप में लोकतंत्र संकट में रहा है, इराक से लेकर मालदीव देश तक. जैसे, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत, नेपाल, बंगलादेश, म्यांमार, थाईलैंड और मालदीव व अन्य देशों में लोकतंत्र कई बार खतरे में पड़ा और कई देशों में यह अब भी बंधक ही है. लेकिन भारत में यह बचा रहा है, तो इसका श्रेय भारतीय नागरिकों के जाता है. लेकिन हम भारतीय ही हैं जो तमाम तरह के संकटों और विभिन्न सामाजिक अंतर्विरोधों के बाबजूद अपना लोकतंत्र बहुत ही अच्छे से चला रहे हैं.

मैला प्रथा से भी चाहिए आजादी

सिर पर मैला ढोने या हाथ से मैला उठाने का घिनौना और अमानवीय कार्य आज भी हमारे देश में न सिर्फ जारी है बल्कि इस काम में लगे सफाई कर्मचारियों की असमय मौत भी हो रही है. ताज़ा घटना मध्य प्रदेश के देवास ज़िाले की है. यहां सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान दम घुटने की वजह से चार नौजवान सफाई कर्मियों की मौत हो गई. पुलिस के मुताबिक 31 जुलाई की सुबह विजय सिहोटे (20), ईश्वर सिहोटे (35), दिनेश गोयल (35) और रिंकू गोयल (16) सफाई करने के लिए सेप्टिक टैंक में उतरे थे, लेकिन उनमे से कोई भी जिंदा वापस नहीं निकला. खबरों के मुताबिक, उस काम के लिए 8000 रुपए मेहनताना तय किया गया था. मध्यप्रदेश की घटना से मिलती-जुलती घटना पिछले महीने देश की राजधानी दिल्ली में देखने को मिली. यहां दक्षिणी दिल्ली के घीटोरनी इलाके में सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान चार सफाई कर्मचारी मौत की मुंह में समा गए. यदि सफाई कर्मचारियों के कल्याण और मैनुअल स्केवेंजिंग पर रोक लगाने के लिए संघर्षरत संस्था सफाई कर्मचारी आन्दोलन के आंकड़ों पर विश्वास करें तो 2014 और 2016 के दौरान सेप्टिक टैंकों और सीवर लाइनों की सफाई के दौरान देश में 1300 सफाई कर्मचारियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. यह स्थिति तब है, जब इस प्रथा के खिलाफ कानूनी प्रावधान मौजूद हैं.

मैला ढोना देश के माथे पर एक ऐसा बदनुमा दाग है, जिसे हटाने की बात तो सभी करते हैं, लेकिन जमीनी सतह पर इसके खात्मे को लेकर कोई प्रयास नहीं किया जाता. इस प्रथा के खिलाफ वर्षों से आवाजें उठती रही हैं. राजनैतिक सतह पर सबसे पहली आवाज 1901 के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने उठाई थी. गांधीजी के बाद भी इस प्रथा के खिलाफ आवाजें उठती रही हैं. मौजूदा और पूर्ववर्ती सरकारों ने भी इस अमानवीय व्यवसाय पर संज्ञान लिया है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे जातीय रंगभेद (कास्ट अपार्थाइड) कहा था, वहीं मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसे देश के माथे पर कलंक बताते हुए इसके जल्द से जल्द खात्मे के लिए आम लोगों का सहयोग चाहते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि इस कुप्रथा के खिलाफ राजनैतिक इच्छा शक्ति के दिखावे की कोई कमी नहीं है. वरना क्या वजह है कि 1901 में गांधीजी ने जिस प्रथा को देश का कलंक बताया था, आजाद भारत में सत्ताधीशें तक उस आवाज के पहुंचने में तकरीबन आधी सदी का समय लग गया. इस प्रथा के खिलाफ़ भारत में पहली बार 1993 में कानून बनाया गया. बहरहाल, आजादी के तकरीबन 50 साल बाद 1993 में मैला ढोने वालों के रोजगार और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर निषेध लगाने के लिए एक कानून पारित किया गया. 1993 में ही सफाई कर्मचारी आयोग का गठन हुआ. चूंकि इस कानून में बहुत सारी खामियां थीं, इसलिए 2013 में और कानून पारित किए गए. लेकिन जमीनी हालात जस-के-तस ही बने रहे. आए दिन सीवर और सेप्टिक की सफाई के दौरान जहरीली गैसों की चपेट में आकर सैकड़ों लोग दम तोड़ रहे हैं.

सरकारी स्तर पर महज टालमटोल की कोशिश होती रही. वर्ष 1993 से 2012 के बीच केंद्र और राज्य सरकारों ने यह प्रथा पूरी तरह से समाप्त करने के लिए कई बार समय सीमा बदली, लेकिन हालात ज्यों के त्यों बने रहे. सफाई कर्मचारी आयोग के गठन का भी कोई अपेक्षित नतीजा सामने नहीं आया, बल्कि उल्टा असर यह हुआ कि अगर कोई गैर सरकारी संस्था या सिविल सोसायटी का कोई व्यक्ति इस समस्या को लेकर सरकार या किसी जिम्मेदार अधिकारी के पास जाता, तो उसे आयोग में अपनी शिकायत दर्ज करने के लिए कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया जाता. सफाई कर्मचारी आयोग और 1993 का कानून इस प्रथा को खत्म करने में पूरी तरह से नाकाम रहे. सिविल सोसायटी और इस क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के दबाव के बाद 2013 में हाथ से मैला ढोने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम (प्रोहिबिशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्केवेंजर एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट) पारित हुआ. इस कानून में यह प्रावधान किया गया कि सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करने वालों को भी मैनुअल स्केवेंजेर स्वीकार किया जाए. कोई भी इंसान सफाई के लिए सीवर के अंदर नहीं जाएगा, यदि जाएगा भी, तो आपात स्थिति में और पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ. एक्ट में इस प्रथा से जुड़े लोगों के पुनर्वास के लिए आर्थिक सहायता देने के लिए सर्वे कराने का भी प्रावधान रखा गया था. लेकिन अभी तक जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, उससे यही जाहिर होता है कि इस कानून पर कछुए की स्पीड से प्रगति हो रही है. हालिया दिनों में सरकार ने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास से सम्बंधित जो आंकड़े जारी किए हैं, उससे तो यही ज़ाहिर होता है.

बेरोजगारी से चाहिए आजादी

29 मार्च को जब देश लोकसभा से जीएसटी को मंजूरी मिल जाने की खुशियां मना रहा था, उसी दिन संसद से ही देश के वर्तमान और भविष्य की दशा-दिशा बताने वाली एक और खबर निकली. लेकिन उस दिन या अगले दिन की खबरों में भी उतनी जगह नहीं पा सकी, जितनी की जीएसटी. हालांकि जीएसटी की सफलता भी उसी पर टिकी है, क्योंकि जब रोजगार ही नहीं रहेगा तो फिर टैक्स कहां से आएगा. 30 मार्च को लोकसभा में ही सरकार ने राजनीतिक दलों की कमाई में अड़ंगा डालने वाले राज्यसभा के उन पांच संशोधनों को खारिज कर दिया, जिनमे से एक में राजनीतिक चंदे की सीमा को कंपनियों के लाभ का 7.5 प्रतिशत तक करने की बात कही गई थी. लेकिन अफ़सोस कि तब भी किसी के लिए यह बड़ी चिंता की बात नहीं थी कि जनता की कमाई क्यों कम हो रही है. विपक्ष ने भी सरकार से इसका कारण नहीं पूछा कि साल-दर-साल नौकरियों में कमी क्यों आती जा रही है और क्या कारण है कि रोजगार उत्सर्जन के लिए बनाई गई तमाम योजनाएं फ्लॉप साबित हो रही हैं. दरअसल, 30 मार्च को कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने लोकसभा में कुछ ऐसे आंकड़े पेश किए, जो ये साबित करते हैं कि रोजगार उत्सर्जन की दृष्टि से मोदी सरकार अपने कार्यकाल के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. मंत्री जी ने सदन को बताया कि साल 2013 की तुलना में 2015 में केंद्र सरकार की सीधी भर्तियों में 89 प्रतिशत तक की कमी आई है. वर्तमान समय के लिहाज से इसे एक भयावह आंकड़ा कहा जा सकता है, क्योंकि भारत अभी बेरोजगारी के एक बुरे दौर से गुजर रहा है. गौर करने वाली बात ये भी है कि केंद्र द्वारा सीधी भर्तियों के आंकड़े में साल दर साल कमी आती जा रही है. साल 2013 में केंद्र द्वारा की गई सीधी भर्तियों में 1,54,841 लोगों को रोजगार मिला था, जो 2014 में घटकर 1,26,261 रह गया.  साल 2015 में इसमें जबर्दस्त गिरावट आई और केंद्र की तरफ से की जाने वाली भर्तियों के माध्यम से केवल 15,877 लोग ही रोजगार पा सके. नौकरियों की ये संख्या केंद्र सरकार के 74 विभागों को मिलाकर है. गौर करने वाली बात यह भी है कि हाशिए पर पड़े उन लोगों के रोजगार उत्सर्जन में भी भारी कमी आई है, जिन्हें हर सरकार अपना बताती रही है. इसी दौरान अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को दी जाने वाली नौकरियों में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है. साल 2013 में इन जातियों के 92,928 लोगों की केंद्र की तरफ से दी जाने वाली नौकरियों में भर्ती हुई थी, जो 2014 में घटकर 72,077 हो गई, जबकि 2015 में ऐसी नौकरियां धड़ाम से गिरीं और इनकी संख्या केवल 8,436 हो गई.

इससे पहले बजट सत्र में ही सरकार के एक अन्य मंत्री ने भी इस दिशा में सदन का ध्यान दिलाया था. केंद्रीय योजना राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने आंकड़ों के जरिए सदन को बताया था कि बेरोजगारी दर में इजाफा हो रहा है. 6 फरवरी को राज्यसभा में पूरक सवालों का जवाब देते हुए राव इंद्रजीत सिंह ने जानकारी दी थी कि वर्तमान समय में बेराजगारी दर 5 फीसदी को पार कर रही है, जबकि अनुसूचित जाति के बीच बेराजगारी की दर सामान्य से ज्यादा, 5.2 फीसदी है. मंत्री जी ने ही बताया था कि जो बेरोजगारी दर आज 5 फीसदी है, वो 2013 में 4.9 फीसदी, 2012 में 4.7 फीसदी और 2011 में 3.8 फीसदी थी. वहीं, साल 2011 में अनुसूचित जाति के बीच बेरोजगार की ये दर 3.1 फीसदी थी, जो आज 5.2 फीसदी है. रोजगार देने के मामले में सरकार के दावों व हकीकत की पड़ताल करें, तो इसमें भी वास्तविकता कुछ और ही नजर आती है. इस बार के बजट में ये बात सामने आई थी कि सरकार ने 2,80,000 नौकरियों के लिए बजट का प्रावधान किया है. सरकार की तरफ से इसे ‘नौकरियों की बाढ़’ कहा गया. आयकर विभाग में सबसे ज्यादा नौकरियों की बात कही गई थी. इस विभाग में नौकरियों की संख्या 46,000 से बढ़ाकर 80,000 किए जाने की बात थी. इसमेंं कहा गया था कि उत्पाद शुल्क विभाग में भी 41,000 नई भर्तियां की जाएंगी. लेकिन कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह द्वारा लोकसभा में बताए गए आंकड़े इसमें संदेह पैदा करते हैं कि बजट में जितनी नौकरियों की बात कही गई है, वे जमीन पर उतर पाएंगी. दो वर्षों के भीतर जब केंद्र सरकार की नौकरियों में 89 फीसदी की कमी हो सकती है, तो फिर कैसें मानें कि सरकार ‘नौकरियों की बाढ़’ लाने वाली है. इन दावों पर चर्चा के बीच ये भी गौर करने वाली बात है कि केंद्र सरकार के ही राजस्व विभाग में बीते 8 सालों के दौरान महज 25 हजार भर्तियां हुई हैं. 2006 से 2014 के दौरान राजस्व विभाग में केवल 25,070 लोग नौकरियां पा सके. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सरकार के पास वेकेंसी नहीं है, या लोगों की जरूरत नहीं है. नौकरियों के लिए पद खाली हैं, लेकिन फिर भी बहाली नहीं हो पा रही और बड़ी संख्या में युवा बेरोजगार बैठे हैं. कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने ही बताया था कि केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में साढ़े सात लाख से ज्यादा पद खाली हैं. जुलाई 2016 में एक लिखित जवाब में मंत्री जी ने लोकसभा में बताया था कि 1 जुलाई 2014 को केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों को मिलाकर 40.48 लाख पद थे, जिनमें से 33.01 लाख पदों पर ही नियुक्तियां की जा सकी थीं. मंत्री जी ने सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए ये बात कही थी. उन्होंने उस रिपोर्ट के अनुसार बताया था कि 1 जनवरी 2014 को केंद्र सरकार के अधीन 7,74,000 पद खाली हैं.

जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान. लोकतंत्र में जय उसी की होती है, जिसकी जरूरत सबसे ज़यादा होती है. लाल बहादुर शास्त्री  ने 1965 के युद्ध में जय जवान का नारा लगाया और हरित क्रांति के दौर में जय किसान का. और, सफल परमाणु परीक्षण के बाद अटल जी ने जय विज्ञान का नारा गढ़ा. लेकिन, सवाल है कि जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान के बीच आज किसान कहां पर खड़ा है? क्या किसान आज सचमुच जय की हालत में है?  एक जवान की मौत पर सारा देश एक साथ सवाल खड़े करता है, लेकिन पिछले 20 वर्षों में लाखों किसानों की आत्महत्या पर हर तरफ खामोशी छाई है. ऐसा क्यों? जय किसान का नारा लगाने वाले इस देश में आखिर किसानों की आत्महत्या राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बन पाई? उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाए हुए 25 वर्ष हो गए हैं. 1991 में जब इसकी शुरुआत हो रही थी, तब कहा गया था कि इससे देश में खुशहाली आएगी. आज 25 वर्ष बाद की एक स्याह तस्वीर या कहें कि आंकड़े देखिए. 1995 से 2014 के बीच देश में आधिकारिक तौर पर तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पिछले 25 सालों में कांग्रेस की सरकार रही, भाजपा की रही और अन्य दलों की भी रही. किसानों की आत्महत्या दर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि केंद्र या राज्य में किसकी सरकार है. और, किसी सरकार को भी यह सोचने की फुर्सत नहीं मिली कि आखिर इस विकराल समस्या का स्थायी समाधान क्या हो सकता है? यूपीए ने 65,000 करोड़ रुपये के किसान कर्ज माफ करने की घोषणा की, जिसका फ़ायदा शायद ही उन किसानों को मिला हो, जो सही मायनों में हकदार थे. बाद में स्वामीनाथन आयोग बना. आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी, सुझाव दिए और उन सुझावों को चुनावी जुमलों के तौर पर खूब इस्तेमाल भी किया गया. लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ज़ाोर-शोर से कहा कि लागत का 50 फीसद किसानों को अलग से एमएसपी के तौर पर दिया जाएगा. उनकी सरकार भी बन गई, लेकिन अभी तक उनकी घोषणा और स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर कोई अमल नहीं हो सका है. दिसंबर, 2014 में खबर आई कि आईबी ने केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट दी है, जिसमें बताया गया है कि कैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक एवं पंजाब में किसान आत्महत्या का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है. कहा गया कि यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा और कृषि मंत्रालय भेजी गई थी. रिपोर्ट में बताया गया कि आत्महत्या की वजह कमजोर मानसून, बढ़ता कर्ज, कम उपज, कमजोर सरकारी खरीद और फसल क्षति है. यह रिपोर्ट मानव जनित कारणों में प्राइसिंग पॉलिसी और अपर्याप्त मार्केटिंग सुविधा को किसानों की समस्याओं के लिए ज़िाम्मेदार बताती है. रिपोर्ट साफ तौर पर बताती है कि सरकारी राहत पैकेज से भी किसानों का भला नहीं होने वाला, क्योंकि ज़यादातर किसान साहूकारों से कर्ज लेते हैं, जो 24 से लेकर 50 फीसद तक ब्याज वसूलते हैं, जिसका कोई समाधान ऐसे आर्थिक राहत पैकेज नहीं दे सकते. अब सवाल यह है कि ऐसी रिपोर्ट मिलने के बाद क्या मौजूदा केंद्र सरकार कोई ठोस कृषि या किसान कल्याण नीति बनाएगी, जिससे इस समस्या का स्थायी समाधान निकल सके या फिर कृषि मंत्रालय का नाम किसान कल्याण मंत्रालय कर देने मात्र से समाधान हो जाएगा? मौजूदा सरकार आने के बाद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रुक नहीं रहा है. संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2014 के अप्रैल माह तक महाराष्ट्र में 204, तेलंगाना में 69, गुजरात, केरल एवं आंध्र प्रदेश में तीन-तीन किसानों ने आत्महत्या की. हालांकि, कई सामाजिक संगठनों ने इसे आंकड़ों की बाजीगरी बताया. वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने कहा है कि किसानों की आत्महत्या के आंकड़े कम करके बताए जा रहे हैं, ऐसा एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) द्वारा आंकड़े एकत्र करने के तरीके में बदलाव की वजह से है. बहरहाल, किसान आत्महत्या जैसी गंभीर समस्या की वजहों और इसे लेकर देश भर के किसान संगठनों की प्रतिक्रियाओं को जानना ज़रूरी है. यह भी जानना ज़ारूरी है कि किसान आंदोलन चलाने वाले किसान नेता आखिर ऐसा क्या काम कर रहे हैं या नहीं कर पा रहे हैं, जिससे यह समस्या एक राष्ट्रीय मुद्दा बन सके. क्यों नहीं केंद्रीय स्तर पर आत्महत्या पीडि़त परिवारों का बकाया कर्ज माफ करने के लिए केरल की तरह कर्ज सहायता कमीशन गठित किया जाना चाहिए? क्यों नहीं यह नियम बने कि मेहनतकश किसानों, बटाईदारों एवं खेतिहर मजदूरों को खेती के लिए ब्याज मुक्त कर्ज दिया जाए और अन्य किसानों से चार प्रतिशत से ज़यादा ब्याज न वसूला जाए? क्या यह ज़ारूरी नहीं है कि भूमिहीन मज़ादूरों के लिए मनरेगा के तहत कम से कम 200 दिनों का रोज़ागार मिले, न्यूनतम 300 रुपये दैनिक मज़ादूरी मिले और मनरेगा को पूरे देश में लागू किया जाए? लेकिन, सबसे बड़ा सवाल सरकार की नीति और नीयत का है. कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की नीति और नीयत को अगर समझना है, तो एक और आंकड़ा देखिए. आज़ाादी के बाद शुरुआती सालों में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 फीसद थी. 60 वर्षों बाद यह घटकर 13 फीसद रह गई. वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में योजना आयोग ने विजन-2020 बनाया था, जिसके मुताबिक, 2020 तक जीडीपी में कृषि (किसानी) योगदान कम करके छह फीसद करने का लक्ष्य तय किया गया था. यानी सरकार चाहे जिसकी हो, अगर इसी लक्ष्य पर काम होता रहा, तो आने वाले समय में इस देश में जय किसान की जगह एक था किसान का नारा गढ़ा जाना तय है.

घोटाले से मिले आजादी

लोकतंत्र का स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसके तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध कैसे हैं और इन तीनों में जवाबदेही बची है या नहीं. आज भारत की दुर्दशा भी इन्ही दो कारकों पर आंकी जा सकती है. पिछले साल भारत में भ्रष्टाचार और घोटालों का बोलबाला रहा. ऐसा लगा, जैसे भारत में घोटाले नहीं, घोटालों में भारत है. आम जनता जहां महंगाई से बदहाल हुई जा रही है, वहीं हमारे नेता और सरकारी अफसर नियमों को ताक पर रखकर बेशर्मी से जनता का पैसा दबाए जा रहे हैं. देखने में आया कि भारतीय प्रजातंत्र के तीनों अंग आपस में ही लड़ते रहे. लड़ ही नहीं रहे हैं, बल्कि अपने भीतर के ही विरोधाभासों से जंग भी कर रहे हैं. मंत्री प्रधानमंत्री की बात नहीं मानते हैं और सुप्रीमकोर्ट हाईकोर्ट में हो रहे भ्रष्टाचार पर उंगली उठा रहा है. सरकारी अफसर घोटालों में लिप्त होने के बावजूद पद छोडऩे को तैयार नहीं हैं. भारत में आज ये सारी घटनाएं एक साथ ऊपरी सतह पर और जनता के सामने आ गई हैं, इसलिए आश्चर्य होता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि घोटाला और अनियमितता कोई नई बात है. इस देश में घोटालों की पूरी श्रृंखला है और वह भी बहुत लंबी. भारत में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां घोटाले नहीं हुए हैं. पहले ये सारे घोटाले जनता की नज़ार से या तो बच जाते थे या दबा दिए जाते थे. बात यह भी है कि आपस में ही फूट पडऩे की वजह से राज्य के तीनों तंत्रों में झगड़ा हो गया है और सब एक-दूसरे का गिरेबान पकडऩे में लग गए हैं. अच्छी बात यह है कि इस वजह से जनता को घोटालों के बारे में पता भी चल गया है. आज के भारत में किसी को भी ईमानदार कहना एक ज़ाोखिम की बात बन गई है. कल के जो ईमानदार थे, आज उनकी कलई खुल गई है. आज भी मनमोहन सिंह अपने आप को जितना पाक-साफ बताएं, लेकिन जनता ने सबसे बड़े घोटाले तो उन्हीं की नाक के नीचे होते देखे हैं. यही हाल शुरू से रहा है. कोई नई बात नहीं है यह. वी के कृष्णमेनन का मुस्तकबिल इतना ऊंचा था कि खुद नेहरू जी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था और उन्हें भारत के रचयिताओं में जगह दी. लेकिन भारत का पहला घोटाला भी उन्होंने ही कर डाला था, यह भी सच है. आजाद होने के बाद से अब तक हमारे प्रजातंत्र का बुरा हाल हो गया है. जवाबदेही धीरे-धीरे सामाजिक जीवन से गायब होती जा रही है. देशप्रेम की कोई जगह नहीं बची है.

एक पौधे को वटवृक्ष बनने के लिए भरपूर खाद-पानी की भी जरूरत होती है. आजादी के ठीक बाद हमारे राजनेताओं ने घोटालों के फलने-फूलने का पूरा इंतजाम कर दिया था. अगर जीप घोटाले के आरोपी वी के कृष्णमेनन को रक्षा मंत्री नहीं बनाया जाता, प्रताप सिंह कैरों को क्लीन चिट नहीं दी जाती और नागरवाला कांड की सच्चाई जनता के बीच आ जाती तथा असली गुनहगारों का पता चल जाता तो शायद फिर कोई प्रभावशाली आदमी घोटाला करने से डरता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजतन, इस देश को जीप से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम तक सैकड़ों घोटाले सहने पड़े. और न जाने कब तक यह सब सहना पड़ेगा. बहरहाल, घोटालों की यह सूची अभी और लंबी है. जिसकी बात फिर कभी, लेकिन इन घोटालों को देखने-पडऩे के बाद यह सवाल भी उठता है कि आख़िर इस कैंसर को खत्म करने के लिए क्या कोई कदम भी उठाया गया. भारत में समय-समय पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नियम और संस्थाएं बनती आई हैं. इसी वजह से सीबीआई और सीवीसी का गठन हुआ, लेकिन ये दोनों ही अपने मक़सद में नाकाम हैं. अलग-अलग कारणों से. आज तक के इतिहास में सीबीआई को अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों ने बस इधर-उधर अपने विरोधियों के पीछे ही दौड़ाया है.

कालाधन से मुक्त हो देश

काला धन दरअसल, वह आय है जिस पर टैक्स की देनदारी बनती है, लेकिन इसकी जानकारी इनकम टैक्स विभाग को नहीं दी जाती. ऐसा धन न केवल इस मायने में घातक है कि यह विदेशों में जमा हो, बल्कि इसका इस्तेमाल आतंकवाद, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने और आने वाले समय में राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता पैदा करने के लिए हो सकता है. भारत में काला धन 1970 के दशक से ही सुर्खियों में बना रहा है. 80 के दशक में बोफ़ोर्स घोटाले के बाद इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया जाने लगा. इसके बाद, हर चुनाव में राजनेता काले धन के बारे में बात करते रहे हैं. 2009 और 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने इस मुद्दे को पूरी ताक़त से उठाया और उसे इस पर बाबा रामदेव समेत समाज के कई तबक़ों से समर्थन मिला. राजनीतिक फ़ायदा उठाने के लिए इस मुद्दे को आसान भाषा में लोगों के सामने पेश किया गया, लेकिन यह उतना आसान नहीं है, जैसा कि दिखता है. काले धन के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका डाली गई, हिचकिचाहट के बावजूद न्यायपालिका के आदेश पर सरकार को इस मुद्दे पर विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन करना पड़ा.  अब सरकार ने विदेशी बैंकों के 627 खातेधारकों के नाम सुप्रीम कोर्ट को बताए हैं. कुछेक खाताधारकों को छोडक़र सरकार ने सूची में शामिल लोगों के नाम उजागर नहीं किए हैं और इसकी वजह वही बताई है जो कि यूपीए सरकार ने बताई थी. सरकार का कहना है कि खातेधारकों का नाम उजागर करने से अंतरराष्ट्रीय दोहरा कराधान बचाव संधि (डीटीएए) का उल्लंघन होगा. लेकिन हक़ीक़त यह नहीं है. ये नाम सरकार को फ्रांंस और जर्मनी की सरकारों से मिले हैं न कि डीटीएए के माध्यम से. हर आज़ाद देश को अधिकार है कि उन नामों को उजागर करे जिन्होंने कर चोरी की है.  पूर्ववर्ती और मौजूदा सरकारों ने विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के संजीदा प्रयासों के बजाय इसे राजनीतिक भभकी के रूप में इस्तेमाल किया है. काले धन के स्रोत का पता लगाना इसका निवेश या इसे बैंकों में जमा करना काफ़ी जटिल मुद्दा है. स्विटजऱलैंड और लिचटेंस्टीन में जमा काले धन का पता लगाना बहुत मुश्किल है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में निवेश की दिशा में बदलाव आया है और इसका रुख़ मध्य पूर्व देशों और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की तरफ़ हो गया है. विदेशी बैंकों के 627 खाताधारकों के नामों की सूची हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई है क्योंकि काले धन की जानकारी किसी को नहीं है, इसलिए यह कितना होगा, इसका पता लगाना बहुत मुश्किल है. इसकी वजह यह है कि यह संबंधित देशों के रुख़ पर निर्भर करता है और यह भी सारे विदेशी खातों को ग़ैरक़ानूनी खातों की सूची में नहीं डाला जा सकता.

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के पास काले धन पर अंकुश लगाने की कोई रणनीति नहीं है. यहां तक कि भारत में काले धन के निवेश पर भी. चाहे यह बैंकों में रखा गया हो या रियल एस्टेट यानी प्रॉपर्टी में लगाया गया हो. घरों की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी काले धन का ही परिणाम है. कई स्टिंग ऑपरेशंस में भी इस बात का ख़ुलासा हुआ है कि काले धन को किस तरह से भारतीय बैंकों, शेयर बाज़ार और उद्योगों में लगाया गया है. इस समस्या से निपटने के लिए लंबी अवधि की रणनीति बनाए जाने की ज़रूरत है. इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि हम काले धन के स्रोतों को ख़त्म नहीं कर सकते. इसका सबसे अच्छा तरीक़ा कर सुधार और मौजूदा क़ानूनों को प्रभावी तरीक़े से लागू करना होगा. पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारत में क़ानून लागू करना हमेशा से ही मुश्किल रहा है. इस बीमारी के इलाज के लिए लंबी अवधि की रणनीति की ज़रूरत है और इसे केवल राजनीतिक मजबूरी नहीं मान लेना चाहिए.

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