जारी है जीत का सिलसिला, दिख रहा है विकास, जीत रहा है विकास

हिमाचल प्रदेश का इतिहास रहा है कि यहां पांच सालों में सरकारें बदलती हैं. प्रदेश के पांच सालों के शासन का स्वाभाविक रूप से बीजेपी पाले में जाना था, लेकिन गुजरात में बीजेपी की जीत से ज़्यादातर लोग हैरान हुए हैं. गुजरात में बीजेपी के खि़लाफ़ कई चीज़ें थीं. 22 सालों की सत्ता विरोधी लहर थी, हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदारों का आंदोलन था, जिग्नेश मेवाणी की अगुवाई में दलितों का आंदोलन था और पिछड़ी जाति ठाकोर की नाराजग़ी थी जिसका नेतृत्व अल्पेश ठाकोर कर रहे थे. गुजरात में नरेंद्र मोदी का नहीं होना भी बीजेपी के खि़लाफ़ लग रहा था.


bjp ki jeetएक वक़्त ऐसा लग रहा था कि गुजरात में काफ़ी कऱीबी टक्कर है, लेकिन आखिऱकार बीजेपी ने बाजी मार ही ली. कांग्रेस इस चुनावी जंग में मजबूती से सामने आई और उसने अपने वोट शेयर में मामूली इज़ाफ़ा भी किया. हालांकि इसके बावजूद कांग्रेस मोदी और अमित शाह को उनके घर में पटकनी नहीं दे पाई. बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में भी आसान जीत दर्ज़ की. इसके साथ ही बीजेपी ने अपने शासन के दायरे में एक और राज्य को शामिल कर लिया. बीजेपी का कांग्रेस शासित राज्यों पर जीत का सिलसिला थम नहीं रहा है. हिमाचल प्रदेश की जीत ने बीजेपी को कांग्रेस मुक्त भारत मिशन के और कऱीब पहुंचा दिया है. यह सच है कि बीजेपी ने दोनों राज्यों में जीत हासिल की है, लेकिन यह पार्टी से ज़्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत है. तथ्यों से साफ़ है कि कांग्रेस बीजेपी को चुनौती देती नजऱ आती है तो नरेंद्र मोदी अकेले ही हालात को संभालते हैं और बीजेपी को जीत की दहलीज तक पहुंचा देते हैं.

इस बात की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि मोदी के खि़लाफ़ मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं की टिप्पणी कांग्रेस के चुनावी अभियान को दिशाहीन करती है. हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की जीत को लेकर किसी को भी शक नहीं था. हिमाचल प्रदेश का इतिहास रहा है कि यहां पांच सालों में सरकारें बदलती हैं. प्रदेश के पांच सालों के शासन का स्वाभाविक रूप से बीजेपी पाले में जाना था, लेकिन गुजरात में बीजेपी की जीत से ज़्यादातर लोग हैरान हुए हैं. गुजरात में बीजेपी के खि़लाफ़ कई चीज़ें थीं. 22 सालों की सत्ता विरोधी लहर थी, हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदारों का आंदोलन था, जिग्नेश मेवाणी की अगुवाई में दलितों का आंदोलन था और पिछड़ी जाति ठाकोर की नाराजग़ी थी जिसका नेतृत्व अल्पेश ठाकोर कर रहे थे. गुजरात में नरेंद्र मोदी का नहीं होना भी बीजेपी के खि़लाफ़ लग रहा था. लेकिन सारी समस्याओं को बीजेपी ने किनारा करते हुए एक बार फिर से गुजरात में जीत हासिल कर ली. हालांकि 2012 में बीजेपी को 115 सीटें मिली थीं और इस बार 99 सीटों पर ही जीत मिली है. हालांकि इस बार बीजेपी के वोट शेयर में मामूली बढ़ोतरी हुई है. 2012 में बीजेपी का वोट शेयर 48.30 फ़ीसदी था और इस बार 49.1 फ़ीसदी है.

कैसे जीती भाजपा

बीजेपी के पक्ष में आखिऱ ऐसे कौन से कारक थे जिससे जीत मिली? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखऱि दो सप्ताह में काफ़ी आक्रामक चुनाव प्रचार किया. इसका असर मतदान के बाद हुए सर्वे में भी साफ़ दिखा. सर्वे में भी दिखा कि मोदी के चुनावी अभियान के कारण बीजेपी के पक्ष में वोटर लामबंद हुए. जिन मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट करने का मन शुरुआत में ही बना लिया था उसकी तुलना में बड़ी तादाद में मतदाताओं ने मतदान के ठीक पहले मोदी के पक्ष में वोट करने का फ़ैसला किया. मोदी के कैंपेन के बाद बीजेपी के पक्ष में मतदान का रुख़ बड़े स्तर पर शिफ़्ट हुआ. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि गुजरात में कऱीब 35 फ़ीसदी मतदाताओं ने मतदान के कुछ दिन पहले अपना मन बनाया. शुरुआत के कुछ सप्ताह में कांग्रेस ने आक्रामक चुनावी अभियान चलाया था. कांग्रेस के इस कैंपेन के कारण बीजेपी बैकफुट पर नजऱ आ रही थी, लेकिन जब नरेंद्र मोदी ने भी आक्रामक कैंपेन शुरू किया तो कांग्रेस के चुनावी अभियान पर भारी पडऩे लगा. मणिशंकर अय्यर की टिप्पणी के बाद मोदी के चुनावी कैंपेन को और गति मिली. अय्यर की नीच वाली टिप्पणी के बाद बीजेपी पूरी तरह से हमलावर हो गई थी. मोदी ने मणिशंकर अय्यर के बयान को गुजराती गौरव और पहचान से जोड़ा. इसके बाद कांग्रेस चुनावी अभियान में बीजेपी के मुक़ाबले बैकफुट पर आई और उसने जो बीजेपी के खिलाफ़ माहौल बनाया था उसे धक्का लगा. कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर और छोटू वसावा जैसे विभिन्न समुदाय के नेताओं के साथ गठबंधन की कोशिशें कीं जिसके परिणामस्वरूप पिछले चुनावों के विपरीत इन समुदायों के कुछ वोट कांग्रेस को अधिक मिले.

हालांकि, यह बदलाव कांग्रेस को जीत का स्वाद नहीं चखा पाया. कांग्रेस को आशा थी कि पाटीदारों के वोट उसके पक्ष में जाएंगे, लेकिन चुनावों के बाद हुए सर्वेक्षणों से पता चला कि पाटीदारों के 40 फ़ीसदी से भी कम वोट कांग्रेस को मिले जबकि बीजेपी 60 फ़ीसदी पाटीदारों के वोट पानी में सफ़ल रही. जिग्नेश मेवानी के साथ गठबंधन भी कांग्रेस के लिए काम नहीं कर सका. 47 फ़ीसदी दलितों के वोट कांग्रेस को मिले जबकि बीजेपी 45 फ़ीसदी दलित वोट पाने में सफल रही. इसी तरह से ओबीसी वोट भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच बंट गया. पाटीदारों के गए वोटों की भरपाई बीजेपी ने आदिवासी वोटों से की. 52 फ़ीसदी आदिवासी वोट बीजेपी को गए. वहीं, केवल 40 फ़ीसदी आदिवासियों के वोट कांग्रेस को गए. यह बात ग़ौर करने वाली है कि पिछले चुनावों में आदिवासियों ने बड़ी तादाद में कांग्रेस को वोट दिया था. कांग्रेस ने अगर छोटू वसावा के साथ गठबंधन नहीं किया होता तो बीजेपी को और भी अधिक आदिवासियों के वोट मिलते. प्रचार के दौरान कांग्रेस ने आदिवासी वोटों को वापस पा लिया था. वैसे तो बीजेपी को गुजरात में एक और चुनाव जीतने के लिए और कांग्रेस से हिमाचल प्रदेश को छीनने के लिए ख़ुश होना चाहिए, लेकिन इन जीतों का ये मतलब नहीं है कि गुजरात में सत्ताधारी पार्टी के भीतर सब ठीक चल रहा था. कुल मिलाकर देखा जाए तो सरकार के विकास कार्यों का रिकॉर्ड संतोषजनक है, लेकिन अब भी अंसतोष और निराशा की आहट साफ़ देखी जा सकती है. गुजरात और हिमाचल, दोनों जगहों पर वोटरों की एक बड़ी तादाद है जो सरकार की नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों से असंतुष्ट है. किसान सरकार से खफ़़ा हैं क्योंकि वो उनकी मुश्किलें हल करने के लिए ज़रूरी कोशिशें नहीं कर रही है. युवा वर्ग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ़ उस तरह आकर्षित नहीं था जैसे कि 2014 के आम चुनावों के ठीक बाद. पीएम मोदी से भी उनकी नाराजग़ी देखी जा सकती थी. लेकिन इन सबके बावजूद एक बड़ी आबादी ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया. जाहिर है, कांग्रेस लोगों की बीजेपी के प्रति निराशा को ग़ुस्से में तब्दील नहीं कर पाई. गुजरात में बीजेपी सरकार को हटाने के लिए वोटरों की नाराजग़ी भर काफ़ी नहीं थी. बीजेपी को हराने के लिए एक गुस्से की ज़रूरत थी, लेकिन लोगों की नाराजग़ी इतनी ज्यादा भी नहीं थी कि इस्से ग़ुस्से में बदला जा सके. बीजेपी को हार्दिक पटेल की रैलियों में उमड़ी भीड़ देखकर लोगों के असंतोष का अंदाज़ा हो गया था, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी अपनी तमाम रैलियों में गुजराती आन-बान का दांव खेलने में कामयाब रहे. उन्होंने गुजरात की जिस अस्मिता का सवाल उठाया, वो उनकी नाराजग़ी को दबाने में सफल रहा. अगर बीजेपी गुजरात में 49 फ़ीसदी वोटों से जीती है तो कांग्रेस 42 फ़ीसदी वोटों के बावजूद चुनाव हारी है. वहीं, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस चुनाव ज़रूर हार गई लेकिन फिर भी 42 फ़ीसदी वोट बनाने में कामयाब रही है. यह सच है कि पीएम मोदी बीजेपी के पक्ष में हवा बनाने में सफल रहे, लेकिन इस जीत के बावजूद बीजेपी के पास चिंतित होने की कई वजहें हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से बढ़ती बेरोजग़ारी गुजराती युवाओं को बीजेपी से दूर कर रही है. बीजेपी की रीढ़ माने जाने वाले व्यापारी और कारोबार समुदाय में भी नाराजग़ी है. अपने वफ़ादार समर्थकों को इस तरह खोना आने वाले दिनों में पार्टी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए.

जीत नहीं आसान

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को कोई बड़ी जीत नहीं मिली है, लेकिन यह जीत पार्टी को काफ़ी राहत देने वाली है. गुजरात चुनाव में जीत दर्ज करना मोदी के लिए नाक का सवाल बना हुआ था. गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है और यहां खराब प्रदर्शन या हार का संदेश गुजरात के बाहर भी जाएगा. गुजरात में बीजेपी इससे पहले आसानी से बहुमत हासिल करती आई है. इस बार का चुनाव बीजेपी के लिए काफ़ी मुश्किल रहा. गुजरात में बीजेपी पिछले 22 सालों से सत्ता में है और मतदाता इस सरकार को लेकर थके हुए भी नजऱ आए. गुजरात में पार्टी एक साथ कई समस्याओं से जूझ रही थी. इन समस्याओं को पाटीदारों के आरक्षण आंदोलन ने और बढ़ा दिया था. गुजरात में पाटीदार अन्य पिछड़ी जातियों से अलग सरकारी नौकरियों में आरक्षण की माँग कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी ने बीजेपी के खिलाफ़ एक मोर्चा बनाया जिसमें पाटीदार नेता हार्दिक पटेल भी शामिल हुए. राहुल गांधी ने कांग्रेस के प्रचार अभियान का नेतृत्व किया और उन्होंने बीजेपी को उसी के गढ़ में चुनौती देने की कोशिश की. बीजेपी गुजरात चुनाव में जीएसटी के कारण व्यापारियों की भी नाराजग़ी झेल रही थी. चुनाव से पहले जितने सर्वे हुए उनमें दिखाया गया कि बीजेपी के हाथ से गुजरात निकल रहा है. बड़ा सवाल यह है कि आखिर बीजेपी ने एक हारते चुनाव को जीत में कैसे तब्दील कर दिया? साफ़ है कि पार्टी ने आखिरी चरण के चुनावी अभियान में हर दांव खेला.

मोदी ने गुजराती गौरव का कार्ड फेंका तो हिंदू वोटों को एकजुट करने के लिए गुजरात चुनाव में पाकिस्तान कनेक्शन भी आज़माया. बीजेपी के दांव में मणिशंकर अय्यर और कपिल सिब्बल फंसे भी और पीएम मोदी ने इससे उपजे विवादों का जमकर इस्तेमाल किया. मोदी ने गुजराती अस्मिता को हवा दी और हिंदू वोटों को एक करने की रणनीति पर भी काम किया. गुजरात चुनाव के नतीजों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच बहुत बड़ा फ़ासला नहीं है. कांग्रेस यह चुनाव जीतते-जीतते हार गई तो बीजेपी यह चुनाव हारते-हारते जीत गई. इस चुनाव में राहुल गांधी ने वो हर काम किया जो जिसे जीत हासिल करने के लिए किया जाना चाहिए था. राहुल ने बिना कोई मजबूत स्थानीय नेतृत्व के बावजूद पार्टी का प्रदर्शन सुधारा. राहुल गांधी को गुजरात के चुनावी नतीजे से पहले पार्टी प्रमुख बनाया गया था. ज़ाहिर है, पार्टी प्रमुख के रूप में गुजरात चुनाव परिणाम निराशाजनक है. राहुल के ज़बरदस्त वोट का दावा ग़लत साबित हुआ. ज़बरदस्त वोट किसी भी पार्टी के पक्ष में नहीं रहा तो इस चुनावी नतीजे के बीजेपी और मोदी के लिए क्या मायने हैं? छोटे और असंगठित व्यापारियों के लिए जीएसटी एक समस्या है. यह साफ़ है कि जीएसटी अभी जिस रूप में है उसे टिकाऊ नहीं माना जा सकता है. दूसरी बात ये कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मुसलमानों के समर्थन में खुलेआम की जाने वाली बयानबाज़ी बंद कर दी है जिसकी वजह से हिंदुओं में भाजपा के जनाधार का एक हिस्सा खिसकने लगा है. इसका मतलब है कि भाजपा को उन हिंदू वोटरों को अपनी तरफ़ लाना होगा जो कांग्रेस की ओर जाने लगे हैं. संभव है कि मोदी सरकार अब अपने आर्थिक और राजनीतिक एजेंडों में बदलाव ला सकती है. ज़ाहिर है मोदी सरकार को अब 2019 के आम चुनाव की चिंता सता रही होगी. आशा की जा सकती है कि मोदी सरकार लुभावनी नीतियों को बढ़ावा दे सकती है. गुजरात में चुनावी नतीजों से पहले 2019 के आम चुनाव में बीजेपी सहयोगियों को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकती थी. गुजरात में चुनावी नतीजे आने के बाद अब मोदी और शाह 2019 में अपने सहयोगियों को अपने हिसाब से साध सकते हैं. 2018 में भी कई राज्यों में चुनाव होने हैं. ये राज्य हैं- मध्य प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और राजस्थान. ये राज्य गुजरात से अलग हैं और यहां मोदी के साथ स्थानीय नेता भी मायने रखते हैं. भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनावी राजनीति की चुनौतियां तो अभी शुरू ही हुई हैं.

2019 की राह आसान

गुजरात-हिमाचल प्रदेश की जीत ने बीजेपी खास कर नरेंद्र मोदी के लिए 2019 की राह आसान कर दी है. उस साल लोकसभा चुनाव होना है. अब नरेंद्र मोदी सरकार निश्चिंत और निर्भीक होकर कुछ ऐसे चैंकाने वाले और बड़े निर्णय कर सकती है जिनसे एनडीए के वोट बढ़ेंगे. और एनडीए संभावित विपक्षी एकजुटता का भी सामना कर पाएगा. वे दूरगामी परिणाम वाले निर्णय हो सकते हैं. विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण एनडीए सरकार के एजेंडे में है. दूसरा प्रमुख संभावित निर्णय ओबीसी के मौजूदा आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने से जुड़ा है. ये दोनों फैसले एनडीए के लिए वोट बढ़ाने वाले साबित हो सकते हैं. सरकारी और गैर सरकारी भ्रष्टाचार के मोर्चे पर मोदी सरकार पहले से ही ‘युद्धरत’ है. यह ‘युद्ध’ मनमोहन सरकार के कथित घोटाला राज से बिलकुल अलग तस्वीर पेश करता है. इस साल के प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक मतदाताओं ने नोटबंदी को भ्रष्टाचार विरोधी कदम का ही हिस्सा माना था. इसीलिए नोटबंदी को आपातकाल बताने वाले नेताओं की वहां कुछ नहीं चली.

गब्बर सिंह फेल

गुजरात में राहुल गांधी ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बताया. लेकिन गुजरात के शहरी क्षेत्रों में भी बीजेपी को अच्छी खासी चुनावी सफलता मिली. इस साल के नतीजों ने साबित किया है कि अधिकतर मतदाताओं को मोदी सरकार की अच्छी मंशा पर भरोसा है. इसलिए कुछ तकलीफों के बावजूद बीजेपी आमतौर पर चुनाव जीतती जा रही है. पंजाब विधानसभा चुनाव जरूर अपवाद रहा क्योंकि वहां की बादल सरकार के कथित भीषण भ्रष्टाचार से आम लोग दुखी थे. उनके लिए अन्य बातें गौण थीं. अब तो वहां से यह भी खबर आ रही है कि पिछली बादल सरकार के करीबी लोग ही ड्रग्स के धंधे में लगे हुए थे. ड्रग्स के भारी कारोबार के कारण वहां की नई पीढ़ी बर्बाद हो रही है. अगले साल देश की जिन विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं, उनमें से अधिकतर राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं. जब विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में बीजेपी ने गुजरात पर फतह हासिल कर ली तो वे राज्य तो आसान ही होंगे, ऐसा माना जा रहा है. हां! कर्नाटक में जरूर बीजेपी की परीक्षा होगी.

असली सवाल 2019 के लोकसभा चुनाव का है. उससे पहले देश के गैर एनडीए दल एकजुट होने की कोशिश करेंगे. उनमें अधिकतर दल जातीय वोट बैंक और समीकरण वाले दल हैं. वे जातीय गठजोड़ बना सकते हैं. मौजूदा स्थिति पर गौर करें तो कुछ प्रदेशों में गैर एनडीए दलों के जातीय गठजोड़ ताकतवर दिखाई पड़ेंगे. यदि इस बीच महिला आरक्षण विधेयक पास हो गया और और ओबीसी आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटा जा सका तो वे संभावित जातीय गठबंधन भी असरहीन हो सकते हैं. गुजरात में भी कांग्रेस ने अपने पक्ष में जातीय गठबंधन बनाया था, पर वह भी कांग्रेस के पक्ष में निर्णायक भूमिका नहीं निभा सका. हालांकि उसका कुछ असर जरूर हुआ. उधर कश्मीर तथा अन्य कुछ राज्यों में आतंकी गतिविधियों को लेकर बीजेपी और विरोधी दलों के बीच आरोप -प्रत्यारोप का दौर आगे भी चलते रहेंगे. इस मामले में अधिकतर गैर बीजेपी दलों के असंतुलित धर्म निरपेक्षता वाले रुख के कारण उसका राजनीतिक लाभ हमेशा ही बीजेपी को मिलता रहा है. इस बार भी गुजरात में ऐसा ही देखा गया. नोटबंदी की तकलीफों के बावजूद बहुसंख्य जनता बीजेपी के खिलाफ क्यों नहीं हुई? इस सवाल के जवाब में यह कहा गया कि आमतौर पर कई लोग पड़ोस के दु:ख से खुश होते हैं. यानी नोटबंदी के कारण जब अमीर लोगों के पैसे जाने लगे तो गरीब खुश हुए थे. इस चुनाव के बाद अब बेनामी संपत्ति वालों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियां अपना अभियान तेज करेंगी और नए अभियान शुरू करेंगी. अधितर लोग इससे खुश होंगे क्योंकि वे नाजायज तरीके से पैसे कमाने वालों से जलते हैं. 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और राजा-महाराजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त किए तो गरीब लोगों ने खुश होकर 1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा कांग्रेस को विजयी बना दिया था. क्योंकि पूंजीपतियों और राजाओं पर कार्रवाइयां गरीबों को अच्छी लगीं. जबकि उन फैसलों से गरीबों को तुरंत कोई डायरेक्ट लाभ नहीं मिल रहा था. लगता है कि इतिहास खुद को दोहराएगा.

जीतेगा भाई जीतेगा, विकास ही जीतेगा

नई दिल्ली में 11 अशोका रोड के बीजेपी दफ्तर पहुंचने पर नरेंद्र मोदी का जोरदार स्वागत किया गया. जोश से भरे कार्यकर्ताओं द्वारा की गई गुलाब की पंखुडिय़ों की बारिश से उनकी काली कार गुलाबी और लाल दिख रही थी. अप्रत्याशित रूप से छठी बार गुजरात की सत्ता में वापसी और हिमाचल प्रदेश कांग्रेस से छीन लेने के बाद उनके लिए यह जबरदस्त उत्साह की घड़ी थी. लेकिन दूर कहीं बीजेपी के कार्यकर्ताओं और नेताओं में खलिश भी थी कि गुजरात की जीत उतनी शानदार नहीं थी, जैसी वो आशा कर रहे थे. आखिरकार जब जुलाई 2013 में मोदी को प्रधानमंत्री पद का कैंडीडेट घोषित किया गया था, उसके बाद बीजेपी ने जितने भी चुनाव लड़े, बिहार और दिल्ली को छोडक़र सभी में बीजेपी की जीत का अंतर बढ़ा ही है. गुजरात मोदी का गृह प्रदेश है और आशा की जा रही थी कि यही रुख यहां भी दोहराया जाएगा. बीजेपी साल 2012 की तुलना में ज्यादा वोट फीसद से जीती है, लेकिन कांग्रेस के मुकाबले घटे हुए अंतर से; और अंतिम नतीजे बताते हैं कि 182 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी को 99 सीटें मिली हैं जबकि कांग्रेस को 80. इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी ने अपनी पार्टी के लिए गुजरात जीता है. उनके जादू और जज्बाती अपीलों के अभाव में पार्टी इसे हार भी सकती थी. उनके लिए पुराना फिल्मी गाना बहुत सटीक बैठता है, हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के और फिर मोदी ने अपने खास अंदाज में इस जीत को पार्टी अध्यक्ष अमित शाह व राज्य में लाखों कार्यकर्ताओं को समर्पित कर दिया. उन सभी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों, जिनके मन में गुजरात में पार्टी की जीत को लेकर कोई शक था, उनके लिए मोदी का संदेश बहुत सादा सा था- आंकड़ों को लेकर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है. हकीकत यह है कि पार्टी (मोदी) ने 27 साल के सत्ता विरोधी फैक्टर को पराजित किया है और अगले पांच साल के लिए फिर से सत्ता हासिल की है, जो कि गर्व का विषय है. मोदी ने कहा, यह साधारण जीत नहीं है. यह असाधारण है. कुछ लोग बीजेपी की जीत को हजम नहीं कर पा रहे हैं, उन पर अपना समय मत व्यर्थ कीजिए और 2022 तक नव-भारत के सृजन पर ध्यान केंद्रित कीजिए.  बाद में उन्होंने ट्वीट किया. गुजरात में जीत बहुत खास है. 1989 में शुरुआत से गुजरात के लोगों ने हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बीजेपी को आशीर्वाद दिया है. इतने वर्षों तक गुजरात की सेवा करना हमारे लिए मान की बात है. हम गुजरात के विकास के लिए काम करते रहेंगे.

उनका धन्यवाद ज्ञापन भाषण तीन मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता है- पहला, चुनाव नतीजों ने जीएसटी और इस पर लोगों के गुस्से को लेकर दिल्ली के बुद्धिजीवियों के फैलाए भ्रम का निर्णायक रूप से फैसला कर दिया है. उनका तर्क था कि उत्तर प्रदेश में शहरी निकायों के चुनाव, गुजरात विधानसभा चुनाव और महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों ने संदेह करने वालों को गलत साबित कर दिया है. मोदी के पास इस दावे के वाजिब कारण भी हैं. बीजेपी ने सूरत में सभी 12 विधानसभा सीटें जीती हैं, जिसने व्यावसायिक और वाणिज्यिक समुदाय के गुस्से को लेकर देश भर में हेडलाइंस में बनाई थी, और संभावना थी कि ये लोग बीजेपी के खिलाफ वोट करेंगे. दूसरा, उन्होंने गुजराती समुदाय के जातीय आधार पर और जातिवादी बंटवारे पर अपनी चिंता जताई, जो कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की एक बुरी प्रथा रही है और जिसके गुजरात में भी उसी तीव्रता से फैल जाने का खतरा है. मोदी ने गुजरात के लोगों से यहां तक अपील की कि समाज को एकजुट रहना चाहिए और विभाजनकारी भावनाओं से सामाजिक समरसता व विकास प्रक्रिया को बाधित नहीं होने देना चाहिए. उन्होंने हालांकि आरक्षण आंदोलन के दौरान 14 नौजवानों के पुलिस फायरिंग में मारे जाने की घटना को लेकर पाटीदार समुदाय और उनके दुख व गुस्से (जिस समुदाय के एक हिस्से का नेतृत्व हार्दिक पटेल ने किया था) और उना की घटने के बाद दलितों में गुस्से का जिक्र नहीं किया, लेकिन यह शीशे की तरफ साफ था कि वो समाज के किस तबके के बारे में बात कर रहे हैं. पाटीदार 1985 से ही बीजेपी के बड़े समर्थक रहे हैं और सामाजिक रूप से या किसी भी तरह से सत्तारूढ़ पार्टी उनके अलगाव का दबाव झेल नहीं सकती. दलितों के मामले में भी यही स्थिति है. मोदी जानते हैं कि विजय रूपाणी के लिए उनकी चिंताओं को आवाज देना मुश्किल होगा, जिस तरह वह कर सकते हैं, इसलिए उन्होंने ठीक समझा कि लोगों से सीधे अपील कर दी जाए. पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए कि वह समाज के विभिन्न तबकों को एक साथ जोड़ सकते हैं, जिनका पार्टी के साथ मोहभंग हो गया है. मोदी ने कहा कि मैदान में चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच लड़ा गया, लेकिन बहुत सी अन्य शक्तियां भी थीं, जिन्होंने चुनावी लाभ के लिए मनमुटाव के बीज बोए. यह अब पार्टी और सरकार की जिम्मेदारी है कि इन चिंताओं पर ध्यान दे. तीसरा, यह एक और मौका था जब मोदी ने समाज के सभी वर्गों की बढ़ती आकांक्षा की बात की और मौजूदा सरकार के इन पर खरा उतरने की बात कही. अगर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के बीजेपी के खिलाफ चुनावी तंज (हालांकि यह उधार लिया हुआ ही था), विकास गांडो थायो छे (विकास पागल हो गया है) के जवाब में बीजेपी के चुनावी नारे, हूं छू गुजरात, हूं छू विकास (मैं ही गुजरात हूं, मैं ही विकास हूं) को मोदी ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए पार्टी कार्यकर्ताओं को नया नारा दिया, जीतेगा भाई जीतेगा, विकास ही जीतेगा.

नोटा ने बिगाड़ा खेल

गुजरात चुनाव में पड़े कुल 1,50,19,245 वोटों में से 5, 51,414 वोट नोटा को मिले. इसकी वजह से कई सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार काफी कम अंतर से हार गए. हार-जीत का अंतर नतीजों में तीसरे स्थान पर रहे नोटा को मिले वोटों से भी कम रहा. कई सीटों पर मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाकर अपने उम्मीदवारों को खारिज कर दिया. विजय रुपानी की राजकोट पश्चिम सीट में 3300 से अधिक नोटा वोट पड़े जो यह दिखाता है कि मतदाता उनसे कितने नाखुश हैं. वडगाम में 4,200 से अधिक वोट नोटा के खाते में आए. अहमदाबाद के ढोलका विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी के मंत्री भूपेंद्र सिंह चुडासमा ने कांग्रेस के अश्विन राठौड़ पर केवल 327 मतों से जीत दर्ज की. नतीजों में 4,222 वोट लेकर निर्दलीय शक्तिसिंह सिसोदिया तीसरे स्थान पर रहे. यहां नोटा को 2,347 वोट मिले. खंभात विधानसभा क्षेत्र में, बीजेपी के महेश रावल को 71,459 वोट मिले जबकि कांग्रेस के खुश्मानभाई पटेल को 69,141 मत पड़े. हार-जीत का अंतर केवल 2,318 वोट रहा. परिणामों में 2,731 वोटों के साथ नोटा को तीसरा स्थान मिला. इसी तरह विसनगर में बीजेपी के ऋ षिकेश पटेल ने कांग्रेस के महेश पटेल पर 2,869 मतों के अंतर से जीत हासिल की. यहां नोटा को 2,992 वोट था. फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी के रमेशभाई कटारा ने कांग्रेस के रघुभाई मच्चर को 2,711 वोटों से हराया. यहां भी नोटा नतीजों में तीसरे नंबर पर रहा. नोटा को मिले 4,573 वोट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के उम्मीदवार के 2,747 मतों से अधिक थे. मातर में बीजेपी के केशरीसिंह सोलंकी कांग्रेस के संजयभाई पटेल को 2,406 वोटों के अंतर से हरा पाने में कामयाब रहे. तीसरे नंबर पर रहे नोटा को यहां 4,090 वोट मिले जो कि अगले स्थान पर रहे निर्दलीय उम्मीदवार से कहीं ज्यादा था. चुनाव में नोटा विकल्प मतदाताओं को इस बात का अधिकार देता है कि अगर उसे कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आए तो वह चुनाव मैदान में खड़े सभी उम्मीदवारों को नकार दे.

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