क्या है इमोशनल इंटेलिजेंस

वास्तव में तीन तरह के इंटेलिजेंस और उसकी महत्ता को हम सभी को समझने की जरूरत है और वह है-  कॉग्जेटिव इंटेलिजेंट, यानी स्कूली उपलब्धि, इमोशनल इंटेलिजेंस यानी आपकी संवेदनशीलता और तीसरा है सोशल इंटेलिजेंस। एक समाज के रूप में हम इन सब में से सिर्फ कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस पर ही जोर दे रहे हैं, इमोशनल और सोशल पर नहीं।


बोर्ड एग्जाम के बाद से एजुकेशन के फील्ड में काफी उथल-पुथल मची हुई है। पहले ग्रेस मार्क्स का मुद्दा हुआ तो फिर एग्जाम रिजल्ट को लेकर तरह-तरह की बातें उठीं। अलग-अलग राज्यों के एग्जाम बोर्डों की कार्यशैली, क्वॉलिटी और मैनेजमेंट को भी लेकर सभी के मन में संशय की स्थिति पैदा हो गई है। रिजल्ट आने के बाद अब नतीजों के आधार पर बच्चों के भविष्य को जोड़ा जा रहा है और ग्रैजुएशन के एडमिशन में मनचाहे विकल्प का न मिल पाना स्टूडेंट्स और पैरंट्स के लिए गंभीर चिंता और बहस का विषय बना हुआ है। नंबरों की रेस लगातार बढ़ती ही जा रही है। अफसोस कि इतना कुछ हो रहा है, लेकिन इसके लिए गंभीरता से सोचने को कोई तैयार नहीं है। हम अभी भी मार्क्स के पीछे भागे जा रहे हैं या भगाए जा रहे हैं। इसे अभी भी छोटी समस्या माना जा रहा है। इससे शिक्षा से ज्यादा समाज का नुकसान हो रहा है और इस पर हम सबको फौरन ध्यान देने की जरूरत है।

वास्तव में तीन तरह के इंटेलिजेंस और उसकी महत्ता को हम सभी को समझने की जरूरत है और वह है-  कॉग्जेटिव इंटेलिजेंट, यानी स्कूली उपलब्धि, इमोशनल इंटेलिजेंस यानी आपकी संवेदनशीलता और तीसरा है सोशल इंटेलिजेंस। एक समाज के रूप में हम इन सब में से सिर्फ कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस पर ही जोर दे रहे हैं, इमोशनल और सोशल पर नहीं। यह हमारे लिए घातक है। एक पैरंट और एक उत्तरदायी इंसान के रूप में हमें इस पर सोचने की जरूरत है।

जरा सोचिए, हम सबने मिलकर बोर्ड के एग्जाम में बहुत ही अच्छे नंबर लाने को एक स्टूडेंट की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं बना दिया है? यह बिल्कुल सही है कि कोई भी स्टूडेंट बिना लगन या तैयारी के अच्छे नंबर नहीं ला सकता। यह सही है कि उसने अपनी प्राथमिकताएं और टाइम मैनेजमेंट को

एक खास नजरिए से देखा है, लेकिन सच यह भी है कि इस स्कूली उपलब्धि को हम ज्यादा-से-ज्यादा कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस की उपलब्धि ही कह सकते हैं। हम अक्सर जीवन में उत्कृष्टता पर बल देते हैं। वास्तव में हमें बच्चों को उत्कृष्टता से भी आगे बढऩे के लिए प्रेरित करना होगा। जीवन में सफलता स्कूली उपलब्धियों से कहीं ज्यादा कम-से-कम दो और बातों पर निर्भर करती है और ये हैं इमोशनल इंटेलिजेंस और सोशल इंटेलिजेंस। इमोशनल इंटेलिजेंस, यानी जीवन में अपने इमोशंस को मैनेज करना बहुत ही जरूरी है। अर्जुन को धनुर्विद्या में शत-प्रतिशत नंबर मिलते थे, लेकिन युद्ध के मैदान में स्वजनों को देखकर उनके हाथ कांपने लगे। ऐसा इमोशनल इंटेलिजेंस की कमी की वजह से हुआ। 21वीं शताब्दी में इसी बात को हम यूं कह सकते हैं कि बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक वातावरण और लक्ष्य पाने के दवाबों को सहने के लिए इमोशनल इंटेलिजेंस और विवेक बहुत ही जरूरी है। मशहूर विचारक गोलमैन तो यहां तक कहते हैं कि जीवन की सफलता 80 फीसदी तक इमोशनल गुणों पर ही निर्भर करती है। अपने आसपास की घटनाओं को देखिए, गोलमेन की बात आपको 100 फीसदी सच लगेगी। ऐसे भी तमाम लोग कामयाब हुए हैं, जिन्होंने स्कूली दिनों में बहुत अच्छे नंबर हासिल नहीं किए।

अब बात सोशल इंटेलिजेंस की। हमें हमारे बच्चों को यह बताने की जरूरत है कि वे जीवन में जो कुछ भी हासिल कर रहे हैं, उसका एक सामाजिक पक्ष भी है। हमारी पढ़ाई, हमारी उपलब्धियां, हमारी प्रतिभा यानी सब कुछ अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद समाज के किसी-न-किसी पहलू को छूनी चाहिए। यह हमारी परंपराओं के अनुरूप है, जिसमें समाज के प्रति आभार की अभिव्यक्ति भी है। जिस दिन हम यह बात अपने बच्चों को समझाने में कामयाब हो जाएंगे, हमारे और बच्चों पर नंबरों का भूत हवा हो जाएगा। नंबर फिर हमें नहीं सताएंगे। हमारी और उनकी परेशानियां कम हो जाएंगी और एक स्वस्थ समाज के रूप में यह हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

प्रैक्टिकली होता यह है कि हम सोशल और इमोशनल इंटेलिजेंस को सबसे कम महत्व देते हैं और कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस को सबसे ज्यादा, जबकि होना इसका उलटा चाहिए। अगर हम अपने बच्चे को समाज, संबंध और समय को लेकर संवेदनशील बनाएंगे, तभी वे कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस का भी सही मायने में फायदा उठा पाएंगे। दरअसल, एक समय के बाद कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस की अहमियत कम होने लगती है और इंसान इमोशनल और सोशल इंटेलिजेंस के भरोसे ही रह जाता है। हमें अपने बच्चों को उस स्थिति के लिए तैयार करना चाहिए।

दिक्कत यह है कि बच्चे खद अपनी मेहनत से कॉग्जेटिव इंटेलिजेंस को हासिल कर सकते हैं, लेकिन बाकी दोनों के लिए उन्हें समाज और परिवार की जरूरत होती है। यहीं हम चूक जाते हैं। हम खुद इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं। एक समाज के रूप में हम अपने बच्चों पर नंबर लाने का इतना प्रेशर डाल देते हैं कि बाकी दोनों इंटेलिजेंस को पाने के लिए न तो उसके पास समय होता है और न ही उसकी चाहत बचती है। जाहिर है, अगर नई पीढ़ी इमोशनल और सोशल मसले पर कमजोर साबित हो रही है तो इसके दोषी हम भी हैं और हमें अपनी गलती स्वीकार करके इन कमजोरियों को मजबूतियों में बदलना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

%d bloggers like this: