जैसा नाम निर्भय वैसा ही व्यवहार : दिनेश पवन
ये बात काफी हद तक ठीक है कि नाम ही आपके व्यक्तित्व की प्रथम काल्पनिक पहचान होता है। कोई नाम सुनते ही हमारी कल्पना में एक प्रतिबिम्ब उभरता है जिसके माध्यम से हम यह तय कर लेते हैं कि इस नाम वाला व्यक्ति इस तरह का होगा। नाम से ही प्रायः यह पता चल जाता है कि व्यक्ति का आचार-व्यवहार कैसा होगा।
ये बात हमेशा हर नाम वाले पर पूरी तरह खरी उतरती हो ऐसा भी नहीं है पर काफी हद तक तो ठीक होती ही है। कम से कम मेरा तो यही मानना है। मेरे अनेक परिचित, मित्र हैं जिनका आचरण कामोवेश उनके नाम के अनुकूल ही है। इन्हीं में से एक नाम है निर्भय जी सक्सेना। एक बार बोलने लगे यारे मरे नाम के आगे जी मत जोड़ा करो। ऐसा लगता है जैसे हम संघ के स्वयंसेवक हों और आप हमें शाखा में चलने को बुला रहे हांे। हम भी कहां चूकने वाले थे। बोल दिया-हमारा जी, आरएसएस वाला नहीं यह तो ‘जीनियस’ का शार्टफार्म है।
हम आपको जीनियस मानते हैं। यह जान कर कुछ लोग आपकी टांग खिंचाई न करें इसलिए जी से ही काम चला लेते हैं। बात आई-गई हो गई। पर आज जब बात निर्भय जी का शब्द चित्र बनाने की आई तो लगा मजाक में कहीं गई ये बात वास्तव में कितनी गम्भीरता लिए हुए है। निर्भय जी के व्यवहार, व्यक्तित्व, संबंध, सम्मान पर कल्पना में बनी फिल्म का फ्लैशबैक देखें तो एक अलग ही खाका तैयार होता है। निर्भय जी एक ऐसे व्यक्ति है जो सही मायने में दोस्तों के दोस्त हैं। दोस्त की खुशी में शामिल होने से भले ही चूक जायें पर मुसीबत के दौर में आप उन्हें हर वक्त अपने साथ पायेंगे। काम कैसा भी हो उसे करने में न झिझक, न झंझट और न ही कोई भय। दोस्ती निभाने में पूरी तरह सक्षम हैं निर्भय सक्सेना। जो काम करने से पहले और लोगों को कई-कई बार सोचना पड़ता है निर्भय जी उसका वीड़ा उठाने में एक पल नहीं लगाते। मुझे याद आता है एक पत्रकार मित्र को एक लड़की से प्रेम हो गया। बात जब साथ-साथ जीने मरने तक पहुंची तो निर्भय जी ने सारे संकोच त्यागकर उनके संबंधों को गठबंधन तक पहुंचाने में दिन-रात एक कर दिया।
एक अन्य व्यापारी मित्र हैं। उनके पड़ोसी से किसी बात पर झगड़ा हो गया। बहुतों को बुलाया पर लगभग सभी ने किसी न किसी बहाने से कन्नी काट ली। एक मात्र निर्भय जी थे जो साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े रहे। उनके सपोर्ट का ही परिणाम रहा कि विवाद का अंत काफी हद तक उनके पक्ष में ही हो गया। कहा तो यहां तक जाता है कि लोगों के काम आने की धुन ने ही निर्भय जी को पत्रकार बना दिया। नहीं अच्छा खासा तेल का कारखाना शुरू किया था। यदि बिजनेस पर ध्यान दिया होता तो आज लाखों में खेल रहे होते। पर ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि उनके सिर पर दोस्तों का दोस्त बनने का शौक सवार था। कारखाना चले, न चले पर लोगों की बेहतरी करने के लिए कलम चलती रहनी चाहिए। घर का सामान भले ही न आये पर पत्रकार संगठन (उपजा) की गतिविधि में अवरोध नहीं आना चाहिए। घर में भले ही आर्थिक तंगी चल रही हो पर यदि ‘उपजा’ एवं ‘नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट ‘ के सम्मेलन में जाना है तो हर हाल में जाना ही जाना है। कितने ही जरूरी काम के लिए पैसे जोड़ कर रखे गए हों पर पत्रकार सम्मेलन में जाने के लिए खर्च कर देने में निर्भय जी को कभी कोई झिझक नहीं होती। साथी पत्रकारों का भी टिकट अपनी जेब से ले आयेंगे भले ही ऐन मौके पर वह पैसे दें या न दे। हर बार एक ही बात कहते हैं, पैसे की चिंता न करो तुम तो बस चलने को हां करो। टिकट में करा देता हूूं। टिकट कटा कर मुस्कराते हुए कहेंगे- लो भई हो गई यात्रा पक्की। यात्रा के दौरान किसी साथी को कोई कष्ट न हो इसका पूरा ध्यान रखना भी निर्भय जी कभी नहीं भूलते। उपजा का सम्मेलन इलाहाबाद, बनारस या मानेसर में हो या ऊंकारेश्वर में खास बात ये है साथियों को हर सुविधा दिलाना निर्भय जी की पहली जिम्मेदारी होती है। खास बात ये हैं कि सहयोग की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। अपनायत का दिखावा तो बहुत लोग करते हैं पर वास्तव में अपनापन क्या होता है इसे व्यक्ति अच्छी तरह जानता है जो एक बार भी निर्भय जी के सम्पर्क में आ जाता है। मैंने इसका प्रत्यक्ष अनुभव तब किया जब मुझे हार्ट की प्राब्लम के चलते एसआरएमएस में भर्ती कराया गया। उस समय निर्भय जी शहर में नहीं थे। दो-तीन दिन बाद लौटे तो घर आये। पूछा ईएसआईसी से कैशलैस स्कीम का लाभ मिला या नहीं। हमने कहा, ‘रिटारयरमेंट के बाद कौन पूछता है।’ बोले- नहीं यार कोई पूछे न पूछे सरकार जरूर पूछती है। और बिना एक पल गंवाये कागजात तैयार करने में लग गए । ये बिल, वो रसीद, ये एप्लीकेशन, वो फोटोस्टेट, यहां दस्तखत, वहां लेटर पोस्टिंग। यानि सारा सिर दर्द अपने ऊपर ले लिया। अक्सर हम अनखना जाते पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपने काम लगे रहते। यहां तक कि राज्य मंत्री श्री भगवत सरन गंगवार तक से सिफारिश लगवाई। परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन सपा सरकार ने इलाज खर्च का लगभग डेढ लाख का चेक प्रदान कर ही दिया। इससे एक लाभ ये भी हुआ कि जो लोग ये कह कर हतोत्साहित कर रहे थे कि एक पैसा भी नहीं मिलेगा, उनके मुंह बंद हो गए और बेमन से ही सही पर उन्हें निर्भय जी की लगन का कायल होना ही पड़ा। मुझे याद आता है उद्योगमंत्री नारायण दत्त तिवारी का जमाना। उस समय वेस्पा स्कूटर ब्लैक में भी आसानी से उपलब्ध नहीं पाता था। निर्भय जी दो पत्रकारों को तिवारी जी के माध्यम से वेस्पा रेट टू रेट दिलवा दिया। इसी तरह शहर में पत्रकारों के लिए प्रियदर्शिनी नगर में आवासीय कालोनी बनवाने में भी निर्भय जी ने महतवपूर्ण भूमिका निभाईं। यह और बात हैे कि निर्भय जी ने काफी मेहनत के बाद भी ‘प्रियदर्शिनी नगर’ में मकान नहीं लिया। जबकि तत्कालीन बरेली विकास प्राधिकारण के उपाध्यक्ष जी डी माहेश्वरी ने दो बार मकानों की तारीख बढ़ाई कि निर्भय जी आप मकान जरूर लें। पर उन्होंने कहा मेरा स्वयं का मकान है और पत्रकारों को मिलने दीजिए। निर्भय जी के विषय में जितना भी याद आता है उसे यदि हूबहू कागजों में उताराजाये तो एक महाग्रंथ तैयार हो जायेगा। यादें तो पीछ छोड़ नहीं रहीं पर कागज आगे साथ देने को तैयार नहीं है। स्पेस जितना है उतना ही लिखा जाये यह पत्रकारिता के करियर मुझे भी बखूबी सिखा दिया है। आकाशवाणी के बरेली के पत्रकार रहे श्री जनार्दन आचार्य बताते है कि
जहां तक मुझे ध्यान है कि हांड़ कपकंपाती ठंड में दिसंबर माह में 1975 को ‘दैनिक विश्व मानव’ में मेरी पहली मुलाकात भाई निर्भय सक्सेना से हुई थी तब आजकल जैसा कम्प्यूटर युग नहीं था, सभी खबरें पहले कागज पर लिखी जाती थी, फिर कंपोज होती थी। निर्भय जी डेस्क पर खबरे लिखने में तल्लीन थे खबर पूरी करने के बाद मेरी ओर मुखातिब हुए, परिचय पूरा हुआ उन्होंने मुझसे बरेली कालेज छात्र संघ से संबंधित कुछ खास बातें पूछी, फिर अयूब खां चोराहे, जो अब पटेल चोक के नाम से जाना जाता है, वहां शिवचरण के चाय के ठेले पर ले जाकर चाय पिलाई। तब से आज तक इन 45 वर्षों से हमारा मिलन लगातार बढ़ते हुए पारिवारिक मित्रता पर पहुंच गया। श्री जनार्दन जी के अनुसार सन् 2013 में इलाहाबाद में हुए यू पी जर्नलिस्ट एसोसिएशन (उपजा) के इलाहाबाद में हुए प्रादेशिक चुनाव में निर्भय सक्सेना प्रदेश उपाध्यक्ष के पद पर विजयी हुए तो दूसरी ओर मैंने प्रदेश मंत्री पद पर सफलता प्राप्त की। जनार्दन जी बताते है अनेकों वीआइपी की प्रेस वार्ताओं में निर्भय जी निर्भीक होकर प्रश्न पूछते थे तो अनेकों मंत्रियों/अधिकारियों द्वारा उसका उत्तर देते नहीं बनता था। कई बंगले झांकते तो कई तमतमा जाते थे। बरेली के वरिष्ठ पत्रकार के रूप में जाने माने निर्भय सक्सेना जी ‘दैनिक अमर उजाला’, ‘दैनिक विश्व मानव’, ‘दैनिक विश्वामित्र’, दैनिक आज तथा ‘दैनिक जागरण’ सहित अन्य कई मासिक व साप्ताहिक सामचार पत्रों से जुड़े रहे। यू. पी. जर्नलिस्ट एसोसिऐशन के बरेली जिला इकाई में सदैव सक्रिय रहे। बरेली में चार बार यू पी जर्नलिस्ट एसोसिऐशन के प्रांतीय अधिवेशन साथियो के साथ मिलकर कराये। तीसरे अधिवेशन में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री राजनाथ सिंह (वर्तमान रक्षामंत्री), भारत सरकार) ने मुख्य अतिथि के तौर पर भाग लिया था। निर्भय जी ने बरेली में उपजा कार्यालय की स्थापना व प्रियदर्शिनी नगर में पत्रकार कालोनी की स्थापना में बढ़ चढ़कर भाग लिया। शहर के बीचोबीच कोतवाली के सामने न्यू सुभाष मार्केट स्थित सिंघल लाइब्रेरी के अलग कक्ष में उपजा कार्यालय के विकास हेतु उ.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.डी.तिवारी व हरियाणा के मुख्यमंत्री देवी लाल जी से राकेश कोहरवाल के माध्यम से आर्थिक सहयोग दिलाया। इतना ही नहीं लगन लगाकर उपजा कार्यालय में उस समय के वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर, राजीव शुक्ला, राहुल देव, कमलेश्वर, रामबहादुर राय, महेश्वर दयाल गंगवार, वी. के. सुभाष, वीरेंद्र सिंह, अजय कुमार तथा अच्युतानन्द मिश्रा, दादा पीयुष कांति राय, सांसद कपित वर्मा, पी.वी. वर्मा सहित अनेकों ख्यातिप्राप्त पत्रकारों को बुलाया तथा उनका मार्गदर्शन लिया।
वरिष्ठ पत्रकार निर्भय सक्सेना को मैंने सदैव ही पूर्ण गतिशील देखा है। उन्होंने पत्रकारों के संगठन को नये आयाम दिये सदैव ही संगठन को मजबूती के साथ आगे बढ़ाने में कमर्ठता दिखायी है।अहंम से दूर रहकर सदैव ही चौथे स्तंभ को मजबूत करने में प्रयासरत रहते है।
87, शाहबाद चोबे जी की गली, बरेली मो. 9897880701