किंग का नया ईपी ‘शायद कोई न सुने’ निकला साइलेंट ब्लास्ट!

मुंबई (अनिल बेदाग) : किंग हमेशा से एक्सपेरिमेंट करने से नहीं डरे, लेकिन इस बार तो उन्होंने अपने म्यूज़िक करियर का सबसे शांत और सबसे बोल्ड मोड़ ले लिया है।
शायद कोई न सुने, उनका नया ईपी (एल्बम का छोटा वर्ज़न), प्ले लिस्ट या चार्टबस्टर नहीं, बल्कि एक धीमी बगावत जैसा है। ऐसी बगावत जो भीड़ नहीं, अकेलेपन में गूंजती है।
सिर्फ तीन ट्रैक्स लेकिन ऐसा लगता है जैसे तीन खिड़कियाँ खुलती हैं उस कमरे की ओर जहाँ हम अपनी सबसे चुप भावनाएँ छुपा कर रखते हैं।
2023 के ईपी शायद वो सुने की इंट्रोस्पेक्टिव (भीतर झाँकने वाली) लहर को पकड़ते हुए, शायद कोई न सुने की शुरुआत होती है ये ज़िंदगी है से। एक धीमी आँच में सुलगता कन्फेशन।
ना कोई बड़ा क्लाइमेक्स, ना शेर-ओ-शायरी की आतिशबाज़ी – बस एक सवाल हवा में तैरता है: क्या हम सच में ज़िंदा हैं, या बस रोबोट मोड में आगे बढ़ रहे हैं? किंग जवाब नहीं ढूंढ़ते, बस उस खामोशी में बैठ जाते हैं।
फिर आता है सब बेअसर। वो गाना जो उन सब के लिए है जिन्होंने मेहनत की, खुद को बदला, आगे बढ़े… और फिर भी दुनिया ने नोटिस तक नहीं किया। यहाँ नारा नहीं, सन्नाटा है। ऐसा लगता है जैसे कोई धीरे-धीरे प्रार्थना कर रहा हो। एक एक्सेप्टेंस कि बदलाव सच्चा होता है, चाहे कोई ताली बजाए या नहीं।
और फिर आता है स्पीक सॉफ्टली जहाँ किंग सबसे ज्यादा कमज़ोर और सबसे ज्यादा सच्चे लगते हैं। जैसे कोई खुद से फुसफुसाकर कुछ कह रहा हो। ये गाना एक लोरी भी है और एक माफ़ीनामा भी।
उन हिस्सों के लिए जो हम दुनिया से छुपा कर रखते हैं। जब वो कहते हैं “मेरी जान”, तो लगता है जैसे कोई अंधेरे में कंधे पर हाथ रख रहा हो – कह रहा हो, “जो नर्मी बची है न, उसे संभाल के रख। दुनिया तो उसे घिसने पर तुली है।”
इस ईपी के बारे में किंग कहते हैं: “‘शायद कोई न सुने’ बनाते वक्त मेरा मकसद सिर्फ ऐसा म्यूज़िक नहीं था जो चार्ट में चढ़े या प्लेलिस्ट में फिट हो। मैं कुछ ऐसा बनाना चाहता था जो उस वक्त साथ दे, जब कोई साथ नहीं होता।
ये गाने वो ख्याल हैं जो मैंने सालों से अपने अंदर दबा रखे थे। कभी ज़ोर से नहीं कहे। ये कोई परफेक्ट कन्फेशन नहीं हैं। ये उलझे हुए, चुपचाप सच हैं। खुद से बात करने जैसे। अगर एक इंसान भी इन गानों को सुनकर थोड़ा कम अकेला महसूस करे, तो मेरे लिए वही काफ़ी है।” किंग का नया ईपी शायद कोई न सुने अब सभी म्यूज़िक प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध है।

गोपाल चंद्र अग्रवाल संपादक आल राइट्स मैगज़ीन

मुंबई से अनिल बेदाग की रिपोर्ट

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