एक स्वरचित कविता हृदय के अंत:करण से फुटा हुआ:

क्या थका हूँ मैं:

क्या थका हूँ मैं, जो नहीं तो क्यों रुका हूँ मैं।
क्यों अपने आप में मग्न हूँ मैं,
तो क्या थका नहीं बल्कि मग्न हूँ मैं।
क्या अपनी मग्नता में रुका हूँ मैं, या सचमुच थक के रुका हूँ मैं।

क्यों घायल हूँ मैं,
क्या किसी बाण ने मुझे भेदा है,
तो क्या ये थकान नहीं, उस बाण का भेदन हैं, और उस भेदन से रुका हूँ मैं या सचमुच थका हूँ मैं ।

जो है भेदन बाण का तो कौन सा बाण है वो,
शरीर के स्थान पर आत्मा पर लगा है जो,
आत्मा को छलनी जो कर गया,
अपमान का पुट लिये हुए है जो,
अवश्य शब्दभेदी बाण है वो, थकान दे गया है जो।

पर आखिर बाण है किसका वो, लौह को पिघला गया है जो,
कैसा बाण है वो।
शब्दों का है या विचारों का बाण है वो,
अहंकार का बाण है वो या फिर है वो प्रतिकार का।
विद्वान का बाण है वो या फिर किसी अहंकारी का।
तो क्या इस रहस्यमई बाण की चुभन ने मुझे थका दिया,
क्या तभी रुका हूँ मैं, दृष्टी में स्वयं के झुका हूँ मैं।

बहुत कुरेदा मैने अपने आप को, निराश हुआ, हैरान हुआ,
जानने को ये सच, सच में परेशान हुआ की जो अहंकार का बाण मुझे भेद गया तो कैसा अहंकार है वो, किसका अहंकार है वो:
क्या विद्या का: नहीं नहीं क्योंकि विद्या तो विनय का जनक है ना की अहंकार का।

तो क्या बुद्धि का: नहीं नहीं क्योंकि अहंकार और बुद्धि संग संग जी ही नहीं सकते।

तो क्या सम्पत्ति का : नहीं नहीं, सम्पत्ति क्या कभी किसी की हुई है, ये तो पराई से भी पराई हुई है।

तो क्या पद का: नहीं नहीं, क्योंकि प्रतिष्ठा सदा पद की हुई है व्यक्ति की नहीं, तो फिर अहंकार व्यक्ति का क्यों।

ये तो अहंकार है भ्रम का जो सभी अहन्कारों पर होता है भारी,
जिसमे अपना कुछ भी नहीं होता है, व्यक्ति कुछ पाता नहीं, वो केवल और केवल खोता है,
और जब जगती है जागृति तो केवल आत्मा ही रोता है।

पर कैसा भ्रम है ये, किसका भ्रम है ये:
भ्रम स्वयं के ज्ञानी और शेष के अज्ञानी होने का।

भ्रम स्वयं के उच्च पदस्थ और शेष के स्वयं के अधीनस्थ होने का,
भ्रम केवल स्वयं के बुद्धिमान और शेष के जड़ होने का,
भ्रम स्वयं के सद्गुणी और शेष के अवगुणी होने का,
या फिर भ्रम स्वयं के उच्च और शेष के निम्न होने का।

इन्हीं में से किसी भ्रम ने शब्दों को भ्रमित किया है, अहंकार की तुष्टि की है और उसका पोषण किया है,
अहंकार से प्रेरित शब्दभेदी बाण
दिये हैं।
इसी बाण का भेदन किसी ने मुझपर है किया,
तो इसी भ्रम रुपी बाण ने मुझे स्वयं की दृष्टी में गिरा दिया।

असल में तो गिरता रहा वो शब्दभेदी बाण चलाने वाला अहंकारी, पर आत्मग्लानी में मैं स्वयं को गिराता चला गया।

अच्छा, अब समझा, तो इसी आत्मग्लानी ने मुझे थका दिया, झुका दिया ।
वो आत्मग्लानी, जो था तो उस भ्रम रुपी बाण चलाने वाले अहंकारी का, उसके अहंकार का, उसके कर्मो का, उसके बोल और वचन का, जिसका दोष स्वयं पर मैं डालता चला गया और स्वयं को स्वयं की दृष्टी में गिराता चला गया ।
भूल गया था मै की भ्रम मात्र एक अवस्था नहीं बल्कि एक मनरोग है।
अहंकार का आवरण ओढ़े हुए, इस सत्य और तथ्य से पृथक होते हुए की, ना रहा है कोई, ना रहेगा कोई।
तो फिर किसी के अहंकार रुपी भ्रम से मैं क्यों भ्रमित रहूँ, क्यों इसके अपमान के शब्दों को गम्भीरता प्रदान करुँ, उसकी विक्षिप्ता से क्यों स्वयं को विक्षिप्त करुँ।
उसके भ्रम और अहंकार का अन्त तो निश्चित है, उसको भी भ्रमित करने वाला अवश्य कहिं ना कहिं जीवित है, क्योंकि सदा की रीत रही है ये की दूसरों को अपने शब्दों से अपमानित करने वाला कभी भी सम्मानित नहीं हुआ है, वो भी किसी ना किसी के शब्द भेदी बाण का लक्ष्य हुआ है।

इसलिये अब संभल गया हूँ मैं, बहुत कुछ समझ गया हूँ मैं, कमियों को अपने अब जान गया हूँ मैं।

जरूरत से अधिक अपना हृदय खोल देता हूँ मैं,
समझकर सबको अपना, सबको सबकुछ बोल देता हूँ मैं।
चौसर का खेल आता नहीं मुझको, फूटी आँख ये खेल सुहाता नहीं मुझको।
पर ये जरूरी तो नही की मैं ना खेलूं तो कोई और ना मुझसे खेले, चौसर के विषैले पाश में मुझे ना ले ले।
तो इसी पाश से हार जाता हूँ मैं, थक जाता हूँ मैं, थक के रुक जाता हूँ मैं, तभी झुक जाता हूँ मैं

बीमारी तो समझ में मेरी आ गई, जान गया मैं की कौन सी थकान मुझे खा गई।

अब तो समय है स्वयं के स्वयं के द्वारा उपचार का,
अन्तर स्पष्ट करना है भ्रम और प्रचार का।

इतना तो सीखना होगा की खेल चौसर का भले ना खेल सकूँ,
पर प्रतिद्वंदी खिलाड़ी के वार को तो झेल सकूँ,
जो गिर भी जाऊं तो संभल के उठ सकूँ, जीवन पथ पर अपने आदर्शों के संग दौड़ सकूँ,
चौसर के खेल को ही नहीं, बल्कि चौसर को ही पराजित कर सकूँ।
अपने को समझ सकूँ, अपनों को समझा सकूँ, हलाहल पी सकूँ, उसे पचा सकूँ ताकी गर्व से कह सकूँ की अपमान मुझे अपमानित नहीं कर सकता ।
पराजय भी अब मुझे पराजित नहीं कर सकता, क्योंकि अब किसी के भ्रम से भ्रमित नहीं हूँ मैं, अब थका नहीं हूँ मैं,झुका नहीं हूँ मैं ।
चेतन हो रहा हूँ मैं, ब्रह्म के भीतर हूँ मैं, उस पार ब्रह्म का हूँ मैं।
थका नहीं हूँ मैं, झुका नहीं हूँ मैं।
अब संभल चुका हूँ मैं।

हर हर महादेव ।।

 

द्वारा उद्यानंद झा

 

 

ब्यूरो रिपोर्ट आल राइट्स न्यूज़ !

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