सुप्रीम कोर्ट: राज्यपाल बिल पर रबर स्टैंप नहीं

Allrights संवाददाता(दीपक सिंह) दिल्ली:–विधेयक को रोक नहीं सकते, समय सीमा की पाबंदी भी नहीं; प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर ‘सुप्रीम’ फैसले की 10 बड़ी बातें

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपालों को विधानसभा द्वारा पारित बिलों पर रोक लगाने का अधिकार है, लेकिन बिलों की स्वीकृति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। देरी होने पर कोर्ट हस्तक्षेप करेगा। राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब में कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य नहीं हैं और समय सीमा लागू करना संविधान के विपरीत है।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राज्यपाल और राष्ट्रपति की बिल मंजूरी की समय सीमा तय करने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुसार, किसी के पास भी गवर्नरों के पास विधानसभाओं से पारित बिलों पर रोक लगाने का अधिकार है।

इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपालों के पास विधानसभा पारित बिलों को लेकर केवल तीन विकल्प हैं। इनमें या तो बिल को मंजूरी दी जाए या बिल को वापस विचार के लिए भेजा जा या अंतिम विकल्प है कि उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी भी बिल की स्वीकृति के लिए कोई समय सीमा नहीं तय की जा सकती है, लेकिन अगर देरी होती है तो कोर्ट दखल देगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की 10 बड़ी बातें भी जानिए

  • सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु की ओर से सर्वोच्च न्यायालय से पूछे गए 14 सवालों के जवाब में आई है।
  • इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने तमिलनाडु क राज्यपाल मामले में फैसला दिया था कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी भी बिल को मंजूरी देने के लिए तीम महीने की समय सीमा तय की थी।
  • संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति ने न्यायालय की राय मांगते हुए पूछा था कि क्या राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत अपने समक्ष को ई विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते हुए मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बाध्य हैं?
  • इस मामले सीजेआई बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने कहा कि समय सीमा लागू करना संविधान के सख्त विपरीत है। पीठ के अन्य न्यायाधीशों में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदिरकर शामिल थे।
  • बता दें कि पहले की दलीलों के उलट गवर्नर के पास अपनी मर्जी होती है यानी वे बिल पर साइन करने या मंजूरी रोकने के लिए काउंसिल ऑफ मिनिस्टर की मदद और सलाह से नहीं बंधे होते।
  • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायालय गवर्नर को किसी भी बिल को सही समय में फैसला करने के लिए सीमित निर्देश दे सकता है, लेकिन वह केवल तभी जब लंबे समय बिना किसी वजह या अनिश्चितकाल तक कोई कार्रवाई ना हो।
  • न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 361 के तहत मिली इम्यूनिटी जो राज्यपालों को उनकी अधिकार और उनके कार्यकाल में किए गए कामों के लिए कानूनी कार्रवाई से बचाती है, उन्हें सही समय के अंदर बिल क्लियर करने या वापस करने के निर्देशों से नहीं बचाएगी।
  • बेंच ने कहा कि गवर्नर या राष्ट्रपति के लिए न्यायिक रूप से समय सीमा तय करना सही नहीं है। राज्याल की मंजूरी को कोर्ट नहीं बदल सकता है। राज्यपाल विधेयक को कानून बनाने के बीच में सिर्फ एक रबर स्टैंप नहीं है।
  • कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति अपने लिए रखे गए हर एक बिल के लिए कोर्ट की सलाह लेने के लिए बाध्य नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान बिलों के लिए डीम्ड एसेंट की प्रक्रिया की इजाजत नहीं देता है। यही कारण है कि कोर्ट बिलों के लिए ‘डीम्ड एसेंट’ घोषित करने के लिए आर्टिकल 142 का इस्तेमाल नहीं कर सकता।

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