विपक्ष से भयभीत सत्ता का अलोकतांत्रिक होना…

vipakshइंदिरा गांधी द्वारा 1975 में देश में आपातकाल घोषित किए जाने जैसे तानाशाही कदम को कांग्रेस विरोधी दल आज तक भुला नहीं पाते। आज भी प्रत्येक वर्ष 25 जून को आपातकाल विरोधी विचार रखने वाले लोग इस दिन को कांग्रेस, खासतौर पर इंदिरा गांधी के तानाशाहीपूर्ण रवैये की याद के तौर पर मनाते हैं। आपातकाल का सारांश यही था कि चूंकि इंदिरा गांधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक चुनाव संबंधी मुकद्दमा हार गई थीं। उस समय उन्हें नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र दे देना चाहिए था। परंतु सत्ता हाथ से निकलने के भय से उन्होंने त्यागापत्र देने के बजाए देश में आपातकाल की घोषणा करना ज्यादा बेहतर समझा। और पूरे देश में इमरजेंसी घोषित कर दी। प्रेस की आजादी का गला घोंट दिया गया। इस तानाशाही रवैये का कांग्रेस तथा इंदिरा गांधी को क्या नतीजा भुगतना पड़ा इसका इतिहास गवाह है।

वर्तमान दौर में देश में काफी लंबे अर्से के बाद भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली सरकार सत्ता में है। परंतु भाजपा के 2014 में सत्तासीन होने के बाद से ही यह महसूस किया जा रहा है कि भाजपा लगभग हर क्षण भविष्य में होने वाले चुनावों की तैयारियों में मशगूल है। उसे 2014 से ही 2019 के चुनावों की फिक्र होने लगी है। दिल्ली की हुकूमत तथा भाजपा से जुड़े रणनीतिकार हर समय ऐसा चक्रव्यूह रचने में लगे रहते हैं जिससे कि विपक्ष को कमजोर किया जा सके तथा जितना अधिक से अधिक हो सके विपक्ष की आवाज को दबाया जा सके। भाजपा अपनी इसी रणनीति के तहत देश के दूसरे कई राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक दलों में तोड़-फोड़ की कार्रवाई को भी प्रोत्साहित करती आ रही है। यहां तक कि देश को कांग्रेस मुक्त बनाने का दंभ करने वाली भाजपा स्वयं कांग्रेस युक्त होती जा रही है। सवाल यह है कि क्या किसी बहुमत की जनप्रतिनिधि सरकार पर यह शोभा देता है कि वह कमजोर विपक्षी दलों से इतना भयभीत हो जाए कि वह लोकतांत्रिक तरीकों से उठने वाली विपक्ष की आवाज का भी गला घोंटने को तैयार रहे? क्या बहुमत वाली केंद्रीय सत्ता का असली चेहरा यही है कि वह मीडिया में उठने वाली विपक्ष की किसी भी आवाज को दबाने के लिए मीडिया घरानों से ही रंजिश पाल बैठे? क्या इस तरह के रवैये इस बात का सीधा संकेत नहीं हैं कि इंदिरा गांधी की ही तरह नरेंद्र मोदी भी सत्ता को किसी भी कीमत पर हाथ से जाते नहीं देखना चाहते?

आखिर क्या वजह है कि आज देश में लोगों को 1975 के उस आपातकाल की याद आने लगी है जब लोकतंत्र की हत्या करते हुए इंदिरा गांधी ने विपक्षी दलों के सफाए तथा उसकी आवाज दबाने की कुचेष्टा की थी? कई राजनैतिक विशलेषकों का तो यहां तक कहना है कि बावजूद इसके कि देश में आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है परंतु कई मायने में हालात आपातकाल से भी बद्तर दिखाई दे रहे हैं। कई अवसरों पर ऐसा देखा जा रहा है कि असंवैधानिक तथा अलोकतांत्रिक रास्तों पर चलते हुए अपने पक्ष तथा अपने विचारों को तो भरपूर तरीके से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है जबकि विपक्ष की आवाज को दबाने की भरपूर कोशिश हो रही है। गोया देश एक अघोषित आपातकाल का सामना कर रहा है।

आखिर क्या वजह है कि आज देश में लोगों को 1975 के उस आपातकाल की याद आने लगी है जब लोकतंत्र की हत्या करते हुए इंदिरा गांधी ने विपक्षी दलों के सफाए तथा उसकी आवाज दबाने की कुचेष्टा की थी? कई राजनैतिक विशलेषकों का तो यहां तक कहना है कि बावजूद इसके कि देश में आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है परंतु कई मायने में हालात आपातकाल से भी बद्तर दिखाई दे रहे हैं। कई अवसरों पर ऐसा देखा जा रहा है कि असंवैधानिक तथा अलोकतांत्रिक रास्तों पर चलते हुए अपने पक्ष तथा अपने विचारों को तो भरपूर तरीके से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है जबकि विपक्ष की आवाज को दबाने की भरपूर कोशिश हो रही है।

पिछले दिनों देश में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। इस अवसर पर देश के सभी राज्यों के प्रमुख अपने-अपने राज्यों में सरकारी स्तर पर परेड की सलामी लेते हैं तथा राज्य की जनता को संबोधित करते हैं। इन निर्वाचित राज्य प्रमुखों अथवा राज्यपालों का भाषण अथवा संदेश सरकारी मीडिया माध्यमों से खासतौर पर दूरदर्शन व आकाशवाणी के क्षेत्रीय चौनल पर अनिवार्य रूप से प्रसारित किया जाता है। जाहिर है यह प्रसारण उन राज्यों के निर्वाचित सत्ता प्रमुखों का अपना अधिकार है। परंतु इस बार देश में पहली बार यह खबर सुनने को मिली कि त्रिपुरा के सीएम माणिक सरकार का स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जारी किया गया संदेश दूरदर्शन व आकाशवाणी पर प्रसारित करने से मना कर दिया गया। बावजूद इसके कि 12 अगस्त को ही दूरदर्शन तथा आकाशवाणी के त्रिपुरा केंद्र द्वारा सीएम का भाषण रिकॉर्ड कर लिया गया था। परंतु 15 अगस्त को इसे प्रसारित करने के बजाए सीएम कार्यालय को एक पत्र के जरिए यह सूचित किया गया कि जब तक उनके भाषण को नया रूप नहीं दिया जाता तब तक इसे प्रसारित नहीं किया जाएगा। जाहिर है इसके जवाब में राज्य के सीएम ने भी स्पष्ट तौर से अपने भाषण में एक भी शब्द बदलने से इंकार कर दिया। क्या त्रिपुरा के सीएम का कुसूर केवल यही है कि वे वैचारिक रूप से माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्य के निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं? आखिर क्या वजह थी कि दूरदर्शन व आकाशवाणी ने सीएम का भाषण प्रसारित करने से इंकार कर दिया?

अब जरा भाजपा के 2014 में सत्ता में आने के कुछ ही दिनों के बाद अर्थात् 3 अक्तूबर 2014 के उस क्षण को भी याद कीजिए जब दूरदर्शन ने नागपुर से संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण का सीधा प्रसारण किया था। आरएसएस भले ही सत्तारुढ़ भाजपा का प्रमुख संरक्षक संगठन क्यों न हो परंतु भारतीय संविधान में संघ अथवा किसी दूसरे स्वयंसेवी संगठन के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे कि वह दूरदर्शन जैसे सरकारी मीडिया माध्यम का इस्तेमाल अपनी वैचारिक अथवा नीतिगत बातों के विस्तार हेतु कर सके। परंतु 3 अक्तूबर 2014 को ऐसा किया गया। उस समय जब भाजपा के विरोधियों द्वारा इसे दूरदर्शन का सत्तापक्ष द्वारा किया जाने वाला दुरुपयोग बताया गया था उस समय भाजपा प्रवक्ताओं ने संघ को एक नेशनल संगठन बताते हुए इस प्रसारण का समर्थन किया था। और कहा था कि संघ प्रमुख के दूरदर्शन पर प्रसारित इस भाषण से देश के लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रनिर्माण की भावना जागृत होगी। क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि सत्ता में आते ही भारतीय जनता पार्टी दूरदर्शन व आकाशवाणी को अपनी निजी संपत्ति समझने लगी है?

क्या भारतीय स्वच्छ लोकतंत्र का यही तकाजा है कि अपने विचारों को प्रसारित-प्रचारित करने के लिए तो सरकारी माध्यमों का सहारा लिया जाए चाहे वह असंवैधानिक या गैरकानूनी ही क्यों न हो? और राज्यस्तर की उन लोकतांत्रिक आवाजों को दबाया जाए जिनके स्वर उनके अपने स्वर से मेल नहीं खाते? गौरतलब है कि राजीव गांधी के शासनकाल में भी एक समय ऐसा आया था जबकि दूरदर्शन पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जरूरत से कुछ ज्यादा ही प्रसारित किया जाने लगा था। उस समय इन्हीं कांग्रेस विरोधी नेताओं ने दूरदर्शन को राजीव दर्शन व कांग्रेस दर्शन कहना शुरु कर दिया था। इस प्रकार की स्वार्थपूर्ण कवायद किसी भी पार्टी अथवा नेता को क्षणिक रूप से कोई राजनैतिक लाभ तो पहुंचा सकती है परंतु इसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते। इसमें कोई शक नहीं कि अन्य राजनैतिक दलों की तुलना में भारतीय जनता पार्टी के नेतागण इन हथकंडों से भलीभांति वािकफ हैं कि विपक्ष के घर में कैसे सेंध लगानी है, विपक्षी नेताओं को लालच अथवा सत्ता का लॉलीपॉप देकर कैसे अपने पक्ष में करना है, जनता को कैसे सब्जबाग दिखाने हैं, सच्चे-झूठे वादों व आश्वासनों का किस प्रकार अंबार लगाना है, मतों का किस सुंदरता के साथ ध्रुवीकरण करना है वगैरह वगैरह। परंतु इसी भाजपा को 1977 के उस उदाहरण को भी अपने सामने जरूर रखना चाहिए जबकि देश की जनता ने लोकतंत्र का गला घोंटने वाले किसी भी तानाशाही प्रयास का मुंह तोड़ जवाब देते हुए तत्कालीन सरकार को सत्ता से उखाड‏‏फ़ेंका था।

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