जिलाध्यक्ष को फिर से हटाने की कवायद महंगी पड़ी भाजपा को

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हाथरस। भारतीय जनता पार्टी में पिछले दो वर्षों से घमासान की स्थिति चल रही है। कारण यह है कि जब से संघ से तप कर निकले हुए रामवीर सिंह परमार भाजपा जिलाध्यक्ष नियुक्त किए गए हैं तब से भाजपा के पुराने दलालों की दाल नहीं गल पा रही है, या यों कहें कि पार्टी को बेचने का गोरखधन्धा अब फलफूल नहीं पा रहा है, सो अनेक प्रकार के काले धन्धों में लिप्त एक मंडल अध्यक्ष ने एक जनप्रतिनिधि के इशारे पर फिर से जिलाध्यक्ष को हटाने की मुहिम ऐसे मंडल अध्यक्षों को साथ लेकर शुरू कर दी है, जो जिलाध्यक्ष की कृपा पर ही मंडल अध्यक्ष बने रहे हैं। जिलाध्यक्ष बनने के बाद रामवीर सिंह परमार ने एक कुशल संगठक का परिचय देते हुए उनसे पूर्व नियुक्त किसी भी मंडल अध्यक्ष को नहीं हटाया था, जो आज उन्हें मंहगा पड़ रहा है।

इस समूचे प्रकरण की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो सच अपने आप प्रकट हो जाता है। दरअसल, रामवीर सिंह परमार के जिलाध्यक्ष बनते ही ‘भाजपा बेचो अभियान’ के कुशल कारीगर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए और अचानक से उन्हें दिनरात संगठन की मजबूती के लिए काम करने वाले जिलाध्यक्ष को हटवाने की सुध आई। शुरू में पुतले फूंके, जातिवाद फैलाने के आरोप लगाए गए, चरित्र पर भी उंगली उठाई गई और न जाने कितने षडयंत्र रचे गए, मगर जिलाध्यक्ष हर बार अग्निपरीक्षा में खरे उतरे। अब, जबकि लोकसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है तो दलालों और नाकारा जनप्रतिनिधियों का रक्तचाप बढ़ा हुआ है। उनका सोचना है कि यदि रामवीर सिंह परमार ही जिलाध्यक्ष बने रहे तो हमारी दाल नहीं गल पाएगी और संगठन को बेचने का एक और मौका हाथ से निकल जाएगा। चूंकि प्रदेश में कई जिलों के जिलाध्यक्ष बदले जाने हैं, ऐसे में अवसर का लाभ उठाते हुए एक समर्पित तपोनिष्ठ जिलाध्यक्ष को हटवाने का एक और प्रयास दलालों और नवागत भाजपाइयों द्वारा पूरे जोरशोर से किया जा रहा है।

सूत्रों का मानना है कि रामवीर सिंह परमार ने जिस प्रकार भाजपा से गन्दगी साफ की है, भाजपा में जो स्वच्छता अभियान चलाया है; जिस प्रकार भाजपा के वजूद को जिले भर में मजबूती से खड़ा किया है- उसे देखते हुए नेतृत्व उन्हें लोकसभा चुनावों से पहले हटाने के कतई मूड में नहीं है। फिर भी शह और मात का खेल जारी है। देखना यह है कि रामवीर सिंह परमार इस एक और अग्निपरीक्षा में फिर से खरे उतर पायेंगे या काले धन्धों में लिप्त, बिकाऊ तथा पुराने व नवागत मठाधीश अपने मंसूबों में सफल हो पायेंगे। अन्त में बस इतना ही कि ‘इब्दिता-ए-इश्क़ है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या?’

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