कम बजट में कैसे सुधरे गरीबों का स्वास्थ्य

health staus in indiaदेश में 80 फीसद शहरी और 90 फीसद ग्रामीण अपने सालाना खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं. वहीं एक मरीज इलाज पर हुए खर्च का 70 फीसद दवाइयों पर खर्च करता है. इस वजह से चार फीसदी लोग हर साल गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं. नामी रिसर्च एजेंसी अन्सर्ट एंड यंग ने अपनी रिपोर्ट में यह जानकारी दी है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन ने भी अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि भारत की 80 फीसद से ज्यादा लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं. ऐसे में अपनी जान बचाने के लिए उन्हें साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता है और धीरे-धीरे वे ऋृ ण जाल में फंसकर कंगाल हो जाते हैं.

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि स्वास्थ्य राज्य सूची में शामिल होने के कारण केंद्रीकृत स्वास्थ्य योजनाओं और राज्य सरकार की योजनाओं में समन्वय का अभाव होता है. कई स्वास्थ्य योजनाएं इसलिए निष्फल रहीं, क्योंकि उनमें राज्य सरकारों ने रुचि नहीं दिखाई. राज्यों के वित्तीय संकट और कुप्रबंधन, प्रशिक्षित चिकित्सकों व चिकित्सकीय उपकरणों की कमी और केंद्र सरकार द्वारा लगातार स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट की कमी के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में कोई सुधार नहीं दिख रहा है. महिलाओं और बच्चों की स्थिति सभी राज्यों में चिंताजनक बनी हुई है. हम विकासशील देशों के लिए हेल्थ हब के तौर पर विकसित तो हो रहे हैं, लेकिन देश में ये सुविधाएं कुछ धनाढ्य और मध्यवर्ग तक ही सीमित हैं. शिक्षा और खाद्य सुरक्षा की तरह स्वास्थ्य को आज तक नागरिकों के अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है. केंद्र सरकार कहती है कि राज्य ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हैं. वहीं राज्यों का तर्क है कि बुनियादी सुविधाओं व सीमित वित्तीय संसाधनों में ऐसा करना संभव नहीं है.

2015 में नीति आयोग ने स्वास्थ्य मंत्रालय को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं, निशुल्क दवाओं के वितरण और जांच पर खर्च कम करने के निर्देश दिए थे. देखा जाए तो अन्य विकासशील देशों के मुकाबले भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अब भी काफी कम पैसे खर्च किए जाते हैं. सरकार एक तरफ तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भरता कम कर प्राइवेट अस्पतालों को बढ़ावा दे रही है, वहीं सभी को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है. एक अच्छी बात है कि देश में शिशु मृत्यु दर 2015 में घटकर 37 हो गई है, जबकि सरकार का यह लक्ष्य 27 का था. ग्रामीण क्षेत्रों में 41 और शहरी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर 25 है. शिशु मृत्यु दर में कमी के बावजूद अभी हम किसी भी विकासशील देश से काफी पीछे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक देश में दिल की बीमारियों से मरने वाले करीब 13 फीसद हैं. इसके बाद दमा, डेंगू, मलेरिया, डायरिया, सांस की परेशानी और टीबी जैसी बीमारियां से अधिक मौतें होती हैं.

वहीं, खबर है कि मोदी सरकार प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं को निजी डॉक्टर्स के हाथों सौंपने जा रही है. सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र की बेहतरी के लिए सरकारी और निजी अस्पतालों में प्रतिस्पर्द्धा की पक्षधर है. नेशनल स्वास्थ्य सेवा 2017 में सरकार इन फैसलों को अमलीजामा पहनाने जा रही है. मंत्रिमंडल ने स्वास्थ्य सेवा का अनुमोदन कर दिया है. सरकार ने कहा है कि स्वास्थ्य खर्च को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने और बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के प्रयास किए जा रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि अगर सरकार जीडीपी का 2.5 प्रतिशत भी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है, तो यह कई विकासशील देशों की तुलना में काफी कम होगा. इतने कम बजट से प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में भी सुधार संभव नहीं है, बाकी के अन्य लक्ष्यों की बात तो जानें दें. अर्न्स्ट एंड यंग का भी मानना है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भारत को जीडीपी का चार फीसद तक खर्च करना होगा.

ग्रामीण क्षेत्रों में आम लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर ही निर्भर होते हैं. पीएचसी में एक डॉक्टर नियुक्त होता है और वहां फर्स्ट ऐड या साधारण बीमारियों का इलाज होता है. सरकार के अथक प्रयास के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए डॉक्टर तैयार नहीं हैं. इसके अलावा सरकार ने प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में वित्तीय निवेश भी कम कर दिया है. ऐसे में अगर स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंप दिया गया, तब इन तक गरीबों की पहुंच मुश्किल होगी. सरकारी अस्पतालों की लचर व्यवस्था के बावजूद आम लोगों को स्वास्थ्य सुविधा का लाभ मिल जाता है. आलीशान फाइव स्टार अस्पतालों में गरीबों के इलाज का सपना सरकार जरूर देख सकती है, लेकिन धरातल पर यह दिवास्वप्न ही साबित होगा. सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को उद्योग का दर्जा बेशक दे, लेकिन जरूरी है कि सार्वजनिक चिकित्सा सेवा को निजी हाथों में न सौंपा जाए.

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